________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 223 केवल लौकिक मान्यताके अनुसार होनेवाले वचनप्रयोगोंकी पुष्टि करनेके लिए ही लिखा गया होगा / इतना सब होने पर भी जो सरलता और वचन प्रयोगके नियम बनानेकी निर्दोष पद्धति हमें पाणिनि व्याकरणके उक्त सूत्रमें दृष्टिगोचर होती है वह बात जैनेन्द्र व्याकरणके उक्त सूत्रमें नहीं दिखाई देती, क्योंकि पाणिनि व्याकरणका उक्त सूत्र केवल शब्दशास्त्रके अनुसार नियम बनाने तक ही सीमित न होकर अपने धर्मशास्त्रकी भी रक्षा करता है / जब कि जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र शब्द शास्त्रके अनुसार ऐसे निर्दोष नियमका प्रतिपादन नहीं करता जो उक्त प्रकारके सब शूद्रवाची शब्दोंपर लागू किया जा सके। यही कारण है कि जैनेन्द्र व्याकरणमें अस्पृश्य शूद्रवाची शब्दोंकी परिगणना अन्यत्र दधि पय आदि गणपाठमें करनी पड़ी है। इतना ही नहीं, इस द्वारा आगम रक्षाका तो यत्किञ्चित् भी ध्यान नहीं रखा गया है, अन्यथा उक्त सूत्रका जो स्वरूप वर्तमानमें दृष्टिगोचर होता है वह अन्य प्रकारसे ही निर्मित किया गया होता। . यह तो प्रकट. सत्य है कि श्रमण वेदोंको तो धर्मशास्त्र के रूपमें मानते ही नहीं थे, वर्णाश्रमधर्मको भी नहीं मानते थे। जो भी श्रमणोंको शरणमें आता था, जातिपाँतिका विचार किये बिना उसे शरण देनेमें वे रञ्चमात्र भी संकोच नहीं करते थे। जो उपासकधर्मको स्वीकार करना चाहता था उसे वे उपासकधर्ममें स्वीकार कर लेते थे और जो उनके समान श्रमणधर्मको स्वीकार करनेके लिए उद्यत दिखलाई देता था उसे वे श्रमण बना लेते थे / यह उनका मुख्य कार्यक्रम था जो ब्राह्मणोंको स्वीकार नहीं था। श्रमणों और ब्राह्मणोंके मध्य मूल विरोधका कारण यही रहा है / यह सनातन विरोध था जिसका परिहार होना उसी प्रकार असम्भव माना जाता था जिस प्रकार सर्प और नौलेके प्रकृतिगत विरोधको दूर करना असम्भव है / इस विरोधकी जड़ केवल कार्यक्रम तक ही सीमित न होकर अपने-अपने श्रागमसे सम्बन्ध रखती थी, इसलिए दोनोंमेंसे कोई भी न तो