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________________ 222 वर्ण, जाति और धर्म करना सम्भव नहीं है / यहाँ यह कहना हमें उचित प्रतीत नहीं होता कि अन्यत्र जिन म्लेच्छोंके लिए मुनिदीक्षाका विधान किया गया है वे शक और यवन आदिसे भिन्न हैं, क्योंकि स्वयं पूज्यपाद आचार्य तत्त्वार्थसूत्रके 'श्राम्लेिच्छाश्च' (2-36) सूत्रकी व्याख्या करते हुए म्लेच्छोंके अन्तर्वीपज और कर्मभूमिज ये दो भेद करके कर्मभूमिज म्लेच्छोंमें शक, यवन, शवर और पुलिन्द आदि मनुष्योंकी ही परिगणना करते हैं। उनकी दृष्टि में शक, यवन आदिके सिवा अन्य कोई कर्मभूमिज म्लेच्छ थे ऐसा उनके द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धिसे ज्ञात नहीं होता। सर्वार्थसिद्धि का वह उल्लेख इस प्रकार है 'म्लेच्छा द्विविधा:--अन्तद्वीपजाः कर्मभूमिजाश्चेति / .... ते एते अन्तर्वीपजा म्लेच्छाः / कर्मभूमिजाश्च शकयवनशवरपुलिन्दादयः।' . ___ यह तो स्पष्ट है कि व्याकरण जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रन्थकी रचना करनेवाला कोई भी विचारक ऐसे किसी नियमको सूत्रबद्ध नहीं करेगा जो सदोष हो, उसमें भी एक निर्दोष सूत्रके सामने रहते हुए ऐसा करना तो और भी असम्भव है। हमारा यह सुनिश्चित मत है कि आचार्य पूज्यपाद उन आचार्यों में नहीं माने जा सकते जो चलती हुई कलमसे कुछ भी लिख दें। आगम रक्षाका उनके ऊपर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व रहा है और उन्होंने धर्मशास्त्रका निरूपण करनेवाले स्वरचित ग्रन्थोंमें उसका पूरी तरहसे निर्वाह भी किया है / यद्यपि आचार्य अभयनन्दिने ऐसे शब्द प्रयोगोंको जो उक्त सूत्रकी कक्षा में आकर भी एकवद्भावको लिए हुए नहीं हैं, 'न दधिपयादीनि // 1 / 4 / 60 // ' इस सूत्रकी परिधिमें स्वीकार कर लिया है यह सत्य है / परन्तु इतने मात्रसे उस दोषका वारण नहीं होता जिसका निर्देश हम पूर्व में कर आये हैं / इस प्रकार विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जैन आगम परम्पराका विरोधी होनेसे एक तो इस सूत्रकी रचना स्वयं प्राचार्य पूज्यपादने को नहीं होगी / और कदाचित् उन्होंने इसकी रचना की भी होगी तो वह मोक्षमार्गको दृष्टि से न लिखा जाकर
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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