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________________ .. जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 221 किसी आचार्यने भगवान् की दिव्यध्वनि कहा हो यह भी हमारे देखनेमें नहीं आया है। उत्तरकालीन कुछ लेखकोंने यद्यपि इस मान्यताको धर्मशास्त्रका अङ्ग बनाया है। परन्तु वह आचार्य जिनसेनके कथनका अनुवादमात्र है; इसलिए यही ज्ञात होता है कि जैनेन्द्र व्याकरणका उक्त सूत्र शाकटायन व्याकरणके बादका होना चाहिए / जैनेन्द्र व्याकरणके सूत्रोंमें उलट-फेर हुआ है, उससे ऐसा होना सम्भव भी प्रतीत होता है / इस सूत्रको जैनेन्द्र व्याकरणका असली सूत्र न माननेका एक कारण और हैं। जो आगे दिया जाता है पतञ्जलि ऋषिने वर्णव्यवस्थाको नहीं स्वीकार करनेवाली शक और यवन आदि अन्य जातियोंको 'पात्र्यशूदों' (स्पृश्यशूद्रों) में ही परिगणित कर लिया है / ब्राह्मण परम्परामें पातञ्जलभाष्यके सिवा अन्य साहित्यके देखने से भी यही विदित होता है कि उनमें तीन वर्णवाले मनुष्योंके सिवा अन्य जितने मनुष्य हैं उनकी परिगणना एकमात्र शूद्रवर्ण के अन्तर्गत ही की गई है / मनुस्मृतिमें मनुमहाराज स्पष्ट कहते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्ण द्विजाति हैं। मनुष्योंकी एक चौथी जाति और है जिसे शुद्र कहते हैं। इसके सिवा अन्य पाँचवां वर्ण नहीं है। उल्लेख इस प्रकार है ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः / चतुर्थ एकजातिस्तु शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः // 10-4 इसलिए द्वन्द्व समासमें शक और यवन आदि अन्य जातियोंको भी अनिरवसित शूद्रोंमें परिगणित करके उनके वाची शब्दोंका एकवद्भाव उन्होंने स्वीकार किया है / यद्यपि जैनेन्द्र व्याकरणके उक्त सूत्रके अनुसार भी यह व्यवस्था बन जाती है इसे हम स्वीकार करते हैं। किन्तु इसे स्वीकार करनेपर म्लेच्छ मनुष्योंकी शूद्रोंमें परिगणना हो जानेके कारण शूद्रोंके समान उनके लिए भी मुनिदीक्षाका निषेध हो जाता है / यह एक ऐसी आपत्ति है जिसका उक्त सूत्रके वर्तमान स्वरूपमें रहते हुए वारण
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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