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________________ 220 वर्ण, जाति और धर्म योग्यानाम्' यह सूत्र उपलब्ध होता है / इसकी व्याख्या करते हुए महावृत्ति में कहा गया है कि जो वर्णसे अहंद्रूपके अयोग्य हैं उनके वाची शब्दोंका द्वन्द्व समास करनेपर एकवद्भाव होता है। यही बात शब्दार्णवचन्द्रिकामें भी कही गई है। प्रकृतमें यह स्मरणीय है कि यहाँपर एकवद्भावको लिए हुए सब उदाहरण स्पृश्य शूद्र जातियोंके ही दिए गये हैं। यथातक्षायस्कारम् , कुलालवरुटम् / यह हम मान लेते हैं कि शाकटायन व्याकरणकी रचना जैनेन्द्र व्याकरणके बादमें हुई है। इसलिए यह सन्देह होता है कि जैनेन्द्र व्याकरणमें निबद्ध उक्त सूत्र शाकटायन व्याकरण के बादका होना चाहिए / अन्यथा शाकटायन व्याकरणमें इसके अनुकूल या प्रतिकूल कुछ न कुछ अवश्य कहा गया होता। सोचनेकी बात है कि शाकटायन व्याकरणके कता जैन आचार्य होकर पातञ्जल भाष्यका अनुसरण तो करें परन्तु जैनेन्द्र व्याकरण के एक ऐसे विशिष्ट मतका जो उनकी अपनी परम्पराको व्यक्त करनेवाला हो, उल्लेख तक न करें यह भला कैसे सम्भव माना जाय ? यह कहना हमें कुछ शोभनीय नहीं प्रतीत होता कि शाकटायनके कर्ता यापनीय थे, इसलिए सम्भव है कि उन्होंने इस मतका उल्लेख न किया हो, क्योंकि एक तो व्याकरणमें केवल अपने सम्प्रदायमें प्रचलित शब्दों या प्रयोगोंकी ही सिद्धि नहीं की जाती है। दूसरे वे दिगम्बर न होकर यापनीय थे यह प्रश्न अभी विवादास्पद है। तीसरे समग्र जैनसाहित्यका अध्ययन करनेसे विदित होता है कि 'शूद्र वर्णके मनुष्य मुनि दीक्षा लेकर मोक्षके अधिकारी हैं। इस विषयमें जैन परम्पराके जितने भी सम्प्रदाय हैं उनमें मतभेद नहीं रहा है / इन सम्प्रदायोंमें मतभेद के मुख्य विषय सवस्त्र मुनिदीक्षा, स्त्रीमुक्ति और केवलीकवलाहार ये तीन ही रहे हैं। इसलिए दिगम्बर तार्किकोंने इन्हीं तीन विषयोंके विरोधमें लिखा है। शूद्रोंकी दिगम्बर दीक्षाके विरोधमें उन्होंने कुछ लिखा हो ऐसा हमारे देखने में अभी तक नहीं आया है / तथा 'शूद्र दीक्षा नहीं ले सकता' इस वचनको
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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