________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 216 जिनके द्वारा भोजन करनेपर भोजनके प्रयोगमें लाया गया पात्र संस्कार करनेसे शुद्ध हो जाता है वे अनिरवसित शूद्र हैं और ऐसे शूद्रोंके वाची जितने शब्द हैं उनका द्वन्द्व समास करनेपर एकवद्भाव हो जाता है। यहाँपर व्यतिरेखमुखेन उन्होंने यह भी प्रकट कर दिया है कि जिनके द्वारा भोजन करनेपर भोजनके उपयोगमें लाया गया पात्र संस्कार करनेसे भी शुद्ध नहीं होता वे निरवसित शूद्र हैं। इससे यह अपने आप फलित हो जाता है कि निरवसित शूद्रोंके वाची शब्दोंका द्वन्द्व समास करनेपर एकवद्भाव नहीं होता। अनिरवसित शब्दका अर्थ करते हुए पतञ्जलि ऋषिने जितने उदाहरण उपस्थित किये हैं उनको देखते हुए मालूम पड़ता है कि वे किष्किन्ध, गन्धिक, शक, यवन, शौर्य, क्रौञ्च, तक्ष, अयस्कार, रजक और तन्तुवाय इन जातियोंको अनिरवसित शूद्र मानते रहे हैं। इससे यह भी मालूम पड़ता है कि उस कालमें आवश्यकता होनेपर इन जातियोंके पात्रादिका उपयोग ब्राह्मण आदि आर्य लोग करते रहे हैं। निरवसित शूद्रोंके उन्होंने चाण्डाल और मृतप ये दो उदाहरण दिए हैं। उनके द्वारा की गई अन्तिम व्याख्यासे यह भी मालूम पड़ता है कि उनके कालमें ब्राह्मण आदि आर्य लोग इन जातियों के पात्र आदि अपने उपयोगमें नहीं लाते थे। . . यह पतञ्जलि ऋषिके कालकी स्थिति है। उनके बाद पाणिनिकृत व्याकरणपर काशिका, लघुशब्देन्दुशेखर तथा सिद्धान्तकौमुदी आदि जितनी व्याख्याएँ लिखी गई हैं इन सबके कर्ताओंने अनिरवसित शब्दका एकमात्र वही अर्थ मान्य रखा है जिसे अन्तमें पतञ्जलि ऋषिने स्वीकार किया है। - जैन व्याकरणोंमें भी शाकटायन व्याकरण तो पातञ्जल भाष्यका ही अनुसरण करता है, इसलिए उसके विषयमें तत्काल कुछ नहीं लिखना है। मात्र जैनेन्द्र व्याकरणकी स्थिति इससे कुछ भिन्न है, क्योंकि उसमें पाणिनिके 'शूद्राणामनिरवसितानाम्' इस सूत्रके स्थानमें 'वर्णेनाद्रूपा