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________________ 218 ___ वर्ण, जाति और धर्म इसका शब्दार्थ है-'अनिरवसित शूद्रवाची शब्दोंका द्वन्द्वसमासमें : एकवद्भाव होता है / ' मालूम पड़ता है कि पाणिनि कालमें शूद्र दो प्रकार के माने जाते थे—अनिरवसित शूद्र और निरवसित शूद्र / पाणिनिने यहाँपर शूद्रोंके लिए स्पृश्य और अपृश्य शब्दोंका प्रयोग नहीं किया है यह ध्यान देने योग्य बात है। ___ पाणिनि व्याकरणपर सर्वप्रथम भाष्यकार पतञ्जलि ऋषि माने जाते हैं / ये ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दीमें हुए हैं। उक्त सूत्रकी व्याख्या करते हुए वे लिखते हैं अनिरवसितानामित्युक्ते-कुतोऽनिरवसितानाम् 1, आर्यावर्तादनिरवसतानाम् / कः पुनरार्यावर्तः 1 प्रागादर्शात्प्रत्यक्कालकवनादक्षिणेन हिमवन्तमुत्तरेण पारियात्रम् / यद्येवं किष्किन्धगन्धिकं शकयवनं शौर्यक्रोञ्चमिति न सिद्धयति / एवं तार्यनिवासादनिरवसितानाम् / कः पुनरार्यनिवासः ? ग्रामो घोषो नगरं संवाह इति / एवमपि य एते महान्तः संस्त्यायास्तेष्वभ्यन्तराश्चाण्डाला मृतपाश्च वसन्ति / तत्र चण्डालमृतपा इति न सिद्धयति / एवं तर्हि याज्ञात्कर्मणोऽनिरवसितानाम् / एवमपि 'तक्षायस्कारं रजकतन्तुवायम्' इति न सिद्धयति / एवं तर्हि पात्रादनिरवसितानाम् / यभुक्ते पात्रं संस्कारेण शुद्धयति तेऽनिरवसिताः। यैर्भुक्ते पात्रं संस्कारेणापि न शुद्धयति ते निरवसिता इति / यहाँपर पतञ्जलि ऋषिने 'अनिरवसित' शब्दके चार अर्थ किए हैं। प्रथम अर्थ आर्यावर्तसे अनिरवसित किया है। किन्तु इस अर्थक्रे करनेपर 'किष्किन्धगन्धिकं शकयवनं शौर्यक्रौञ्चम्' ये प्रयोग नहीं बनते, इसलिए इसे बदलकर दूसरा अर्थ आर्यनिवाससे अनिरवसित किया है। किन्तु इस अर्थके करनेपर 'चाण्डालमृतपाः' यह प्रयोग नहीं बनता, इसलिए इसे बदलकर तीसरा अर्थ यज्ञसम्बन्धी कर्मसे अनिरवसित किया है। किन्तु इस अर्थके करनेपर 'तक्षायस्कारं रजकतन्तुवायम्' ये प्रयोग नहीं बनते, इसलिए उन्हें चौथा अर्थ करना पड़ा है। इसमें उन्होंने बतलाया है कि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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