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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 217 देते हैं / किन्तु शब्दार्णवके समान महावृत्तिका रचनाकाल ही बहुत बादका है और यह काल जातिवादके आधारपर जैन साहित्यमें नई धारणाओं और मान्यताओंके प्रवेशका रहा है, इसलिए महावृत्तिके कर्ता अभयनन्दिको अविकलरूपमें मूल सूत्रपाठ उपलब्ध हो गया होगा यह कह सकना बहुत कठिन है। इतना स्पष्ट है कि यह सूत्र दोनों सूत्रपाठोंमें समानरूपसे पाया जाता है, इसलिए अनेक विपरीत कारणोंके रहते हुए यह कह सकना सम्भव नहीं है कि सूत्रपाठमें इसका समावेश अन्य किसीने किया होगा या लौकिक धर्मके निर्वाहके लिए आचार्य पूज्यपादने स्वयं इसकी रचना की होगी। फिर भी कुछ तथ्योंको देखते हुए हमारा मत इस पक्षमें नहीं है कि महावृत्ति और शब्दार्णवमें जिस रूपमें यह सूत्र उपलब्ध होता है, आचार्य पूज्यपादने इसकी उसी रूपमें रचना को होगी। कारणोंका विचार आगे करनेवाले हैं। जो कुछ भी हो, इस आधारसे कुछ विद्वान् अधिकसे अधिक यह धारणा बना सकते हैं कि प्राचार्य पूज्यपादके कालमें जैन परम्परामें इस मान्यताको जन्म मिल चुका था कि शूद्रवर्णके मनुष्य मुनिदीक्षाके अधिकारी नहीं हैं / परन्तु न तो श्राचार्य पूज्यपादने ही इस मान्यताको धर्मशास्त्रका अङ्ग बनानेका प्रयत्न किया और न महापुराणके रचयिता आचार्य जिनसेनने ही इसे सर्वज्ञकी वाणी बतलाया। आचार्य पूज्यपादने तो इसे अपने व्याकरण ग्रन्थमें स्थान दिया और प्राचार्य जिनसेनको अन्य कोई अालम्बन नहीं मिला तो भरत चकवतीके मुखसे इसका प्रतिपादन कराना इष्ट प्रतीत हुआ / इस स्थितिके रहते हुए भी हैं ये उल्लेख मोक्षमार्गकी प्रक्रियासे अनभिज्ञ अल्प प्रज्ञावाले मनुष्यों के चित्तमें विडम्बनाको पैदा करनेवाले ही। अब थोड़ा शब्द शास्त्रकी दृष्टि से इसके इतिहासको देखिए / वर्तमान कालमें जितने व्याकरण उपलब्ध होते हैं उनमें पाणिनि व्याकरण सबसे पुराना है। ईसवी पूर्व ५वीं शताब्दी इसका रचनाकाल माना जाता है / इसमें एक सूत्र आता है शूद्राणामनिरवसितानाम् // 2 // 4 // 10 //
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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