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________________ 216 ___ वर्ण, जाति और धर्म और जातिवालेको सम्यक्चारित्रकी प्राप्ति होती है और किस कुल, वर्ण और जातिवालेको इसकी प्राप्ति नहीं होती इसका उल्लेख नहीं होनेका यही कारण है। कुल और जातिका जहाँ प्रसङ्ग आया है उनका आचार्य कुन्दकुन्द आदिने निषेध ही किया है। ___ इन ग्रन्थोंके बाद रत्नकरण्डका स्थान है। उसमें मुख्यरूपसे गृहस्थ धर्मका प्रतिपादन किया गया है / उसका समग्ररूपसे अवलोकन करनेपर भी यही निश्चय होता है कि जैमपरम्परामें मोक्षमार्गमें कुल, वर्ण और जातिको कोई स्थान नहीं है। इसी कारणसे उसमें मुनिदीक्षाके प्रसङ्गसे वर्ण और जातिका नामोल्लेख न करके केवल इतना ही कहा गया है कि मोहरूपी अन्धकारका अभाव होनेपर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति पूर्वक सम्यग्ज्ञानको प्राप्त हुआ साधु पुरुष हिंसादिके त्यागरूप सम्यकचारित्रको प्राप्त होता है / व्याकरण साहित्य इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य समन्तभद्रके काल तक दिगम्बर जैन परम्परा अपने मूलरूपमें आई है। प्राचार्य पूज्यपादके सर्वार्थसिद्धि आदि धार्मिक साहित्यका अवलोकन करनेसे भी यही निष्कर्ष निकलता है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य पूज्यपाद अपने कालके बहुत बड़े अागमज्ञ प्राचार्य हो गये हैं। तभी तो उनके मुखसे वे वचन प्रकाशमें आये थे जिनके द्वारा जाति और लिङ्गकी तीव्रतासे निन्दा की गई है। इतना ही नहीं, उन्होंने इन वचनों द्वारा जाति और लिङ्गके विकल्प करने मात्रको मोक्षमार्गका परिपन्थी बतलाया है। इस प्रकार एक ओर मोक्षमार्गमें उपयोगी पड़नेवाले उनके साहित्यकी जहाँ यह स्थिति है वहाँ उनके व्याकरण में 'वर्णेनाहंद्र पायोग्यानाम्' सूत्रको पढ़कर आश्चर्य होता है। वर्तमान कालमें जैनेन्द्र व्याकरण के दो सूत्रपाठ उपलब्ध होते हैं-एक महावृत्तिमान्य और दूसरा शब्दार्णवमान्य / दोनों सूत्रपाठोंमें जितना अधिक साम्य है उतना ही अधिक वैषम्य भी है। कुछ विद्वान् महावृत्तिमान्य सूत्रपाठको प्रमुख स्थान
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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