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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 215 स्वामी है, इसलिए उन्हींका कर्ता हो सकता है। अज्ञानी अवस्थामें वह अज्ञानमय भावोंका कर्ता बनता है और ज्ञानी होने पर वह ज्ञानमय भावों का कर्ता होता है / ऐसी वस्तु-व्यवस्था है। इसके रहते हुए उपचारसे यह कहा जाता है कि इसने अन्य द्रव्यको ग्रहण किया, इसने अन्य द्रव्यको छोड़ा। अन्य द्रव्यको छोड़ा इसका आशय इतना ही है कि अब तक इसकी अन्य द्रव्यमें जो स्वामित्वकी बुद्धि बनी हुई थी उसका त्याग किया। प्रकृतमें भावसंयमकारणक द्रव्यसंयम होता है ऐसा कहनेका भी यही अभिप्राय है। प्राचार्य कुन्दकुन्द और वहकेर स्वामीने इस सम्यक् अभिप्रायको समझकर प्रवचनसार और मूलाचारमें द्रव्यलिङ्गकी व्यवस्थाका प्रतिपादन किया है। . ___ प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि जब यह जीव भावसंयमके सम्मुख होता है तब उस भावको अपने कुटुम्बियों और इष्टमित्रोंके समक्ष प्रकटकर उनकी सम्मतिपूर्वक घरसे विमुख हो श्राचार्यकी शरणमें जाकर उनके समक्ष अपने उत्कृष्ट भावलिङ्ग के साथ द्रव्यलिङ्गको प्रकट करता है। चरणानुयोगमें मुनिलिङ्गको प्रकट करनेकी यह पद्धति है। इसके बाद साधुका. आचार-व्यवहार किस प्रकारका होता है इसका विचार उक्त प्राचार ग्रन्थोंमें विस्तारके साथ किया गया है / . यह तो मानी हुई बात है कि जिसके भव्यत्त्र भावका विपाक होता है वह जीव अन्तरङ्ग परिणामोंके होनेपर सम्यक्त्व आदिको धारण करनेका अधिकारी होता है। ऐसा जीव यदि देव, नारकी भोगभूमिज तिर्यञ्च और भोगभूमिज मनुष्य होता है तो उसके सम्यग्दर्शन प्रकट होता है। कर्मभूमिज पञ्चेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्त तियञ्च होता है तो उसके सम्यग्दर्शन या इसके साथ संयमासंयम भाव प्रकट होता है और यदि कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य होता है तो उसके सम्यग्दर्शन या इसके साथ संयमासंयम या संयमभाव प्रकट होता है। इसके लिए इसे इक्ष्वाकु आदि कुलमें और ब्राह्मण आदि जातियोंमें उत्पन्न होनेकी श्रावश्यकता नहीं है / प्रवचनसार, नियमसार और मूलाचारमें किस कुल, वर्ण
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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