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________________ 214 वर्ण, जाति और धर्म मौलिक ग्रन्थ हैं, इसलिए इनका महत्त्व और भी अधिक है। इनमें . प्रधानतासे मुनि-श्राचारका ही प्रतिपादन किया गया है। भावप्राभृतमें यह गाथा आई है भावेण होइ णग्गो मिच्छत्ताइ य दोस चइऊणं / . पच्छा दब्वेण मुणी पयडदि लिंगं जिणाणाए // 73 // यह गाथा भावलिङ्ग और द्रव्यलिङ्गके अन्योन्य सम्बन्ध पर प्रकाश डालती है / भावलिङ्गकी प्राप्ति मिथ्यात्व आदि अन्तरङ्ग परिणामोंके त्याग . से होती है और द्रव्यलिङ्गकी प्राप्ति मुंनि पदके योग्य अन्तरङ्ग परिणामोंके साथ वस्त्रादिके त्यागपूर्वक बाह्य लिङ्गको धारण करनेसे होती है। लोकमें यह कहा जाता है कि पहले दीपक जलाअोगे तभी तो प्रकाश होगा / यदि . दीपक ही नहीं जलाअोगे तो प्रकाश कहाँसे होगा। यह मानी हुई बात है कि दीपक जलाना और प्रकाशका होना ये दोनों कार्य एक साथ होते हैं। . फिर भी इनमें कार्य-कारण भाव होनेसे यह कहा जाता है कि पहले दीपक जलाअोगे तभी प्रकाश होगा। आचार्य कुन्दकुन्दने उक्त गाथा द्वारा यही भाव व्यक्त किया है। वे अन्तरङ्ग संयमरूप परिणामको कारण और बाह्य लिङ्ग धारणको उसका कार्य बतलाकर यह प्रकट करना चाहते हैं कि बाह्य लिङ्ग तभी मुनिलिङ्ग माना जा सकता है जब उसके साथ अन्तरङ्गमें संयमरूप परिणाम हों। अन्यथा केवल द्रव्यलिङ्गको धर्म अर्थात् मोक्षमार्गमें कोई स्थान नहीं है। इतने विवेचनसे दो बातें सामने आती हैं-एक भाव संयमकी, जिसका विवेचन अागम साहित्यमें विस्तारके साथ किया गया है और दूसरी भाव संयमके साथ होनेवाले द्रव्यसंयम को, जिसका विचार प्रवचनसार और मूलाचार आदिमें किया गया है। यह तो सिद्धान्त है कि अन्य द्रव्यको न कोई ग्रहण करता है और न कोई छोड़ता है। केवल यह जीव अन्य द्रव्य को ग्रहण करने और छोड़नेके भाव करता है। यह जीव अपने भावोंका
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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