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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 225 प्रयोगमें किये जानेवाले एकवद्भावको दिखलानेके अभिप्रायसे बनाया / . उसके बाद पतञ्जलि ऋषिने अनिरवसित शूद्र शब्दका अर्थ पाव्यशूद्र किया। जिसे पाणिनि व्याकरणके अन्य टीकाकारोंने तो मान्य रखा ही, जैनव्याकरणकार शाकटायनने भी उसी अर्थकी पुष्टि की। इस प्रकार एक विवक्षित अर्थमें चला आ रहा यह सूत्र जैनेन्द्र व्याकरणमें रूपान्तरित होकर दृष्टिगोचर होता है यह क्या है ? यह तो स्पष्ट है कि श्रमणों और ब्राह्मणों के मध्य अन्य तीन वर्णोको लेकर विवाद नहीं था, क्योंकि इन तीन वर्गों को कर्मसे मान लेनेपर जो सामाजिक और आध्यात्मिक अधिकार मिलना सम्भव था वे जन्मसे वर्ण व्यवस्थाके स्वीकार करनेपर भी उन्हें मिले हुए थे। इससे व्यवहार में इन तीन वर्षों के मध्य परस्पर हीन भावका सबाल खड़ा नहीं होता था / मुख्य विवाद तो शूद्रोंको लेकर ही था / ब्राह्मणोंका कहना था कि शूद्र वर्णको ईश्वरने शेष तीन वर्गों को सेवाके लिए ही निर्मित किया है / यही उनको श्राजीविका है और यही उनका धर्म है। श्रमणोंका कहना था कि वे दुर्बलता वश भले ही श्रम और अन्यकी सेवा द्वारा अपनी आजीविका करते हों परन्तु यह उनका धर्म नहीं हो सकता / धर्ममें उनका वही अधिकार है जो अन्य वर्णवालोंको मिला हुआ है / श्रमणों और ब्राह्मणोंका यह विवाद अनादि था और इसका कहीं अन्त नहीं दिखलाई देता था। मालूम पड़ता है कि जैनेन्द्र व्याकरणके उक्त सूत्रमें किये गये परिवर्तन द्वारा उस विरोधका शमन किया गया है। . मध्यकालीन जैन साहित्य..अब जैनेन्द्र व्याकरणके बादके मध्यकालीन जैन साहित्यको देखें कि उसमें इस विचारको कहाँ तक प्रश्रय मिला है। इस दृष्टि से सर्व प्रथम हमारा ध्यान. वराङ्गचरित पर जाता है। यह प्रथम महाकाव्य है जिसमें कर्मसे वर्ण व्यवस्थाकी स्थापना कर ब्राह्मणोंको आड़े हाथों लिया गया है। स्पष्ट है कि इसका लक्ष्य प्रागमिक है। यह शूद्र होनेके कारण किसी व्यक्तिको मुनिदीक्षाके अयोग्य घोषित नहीं करता।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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