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________________ जिनदीक्षाधिकार मीमांसा 206 जिनदीक्षाधिकार मीमांसा आगम साहित्य भगवान् महावीर स्वामीकी वाणीका मूल अंश जो कुछ भी बच सका वह षट् खण्डागम और कषायप्राभृतमें सुरक्षित है इस तथ्यको सब प्राचार्योंने एक स्वरसे स्वीकार किया है / साहित्यिक दृष्टि से तो इनका महत्त्व है ही, जीवन निर्माण में भी इनका बड़ा महत्त्व है। चौदह मार्गणाएँ, चौदह गुणस्थान, संयमस्थान, संयमासंयमस्थान, सम्यक्त्व, जीवोंके भेद-प्रभेद, कर्मोके भेद-प्रभेद और उनका उदय, उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण, बन्ध और सत्त्व आदि विविध अवस्थाएँ तथा ककी क्षपणा आदि प्रक्रिया आदि विविध विषयोंको ठीक रूपसे हम इनके आधारसे ही जान पाते हैं। अन्धकारमें भटकनेवाले मनुष्यको प्रकाशकी उपलब्धिसे जो लाभ होता है वही लाभ हम संसारी जन इन महान् आगमग्रन्थोंके स्वाध्याय, मनन और अनुभवनसे उठाते हैं। संक्षेपमें हम कह सकते हैं कि वर्तमानकालमें जैनधर्मका सही प्रतिनिधित्व करनेवाला एकमात्र यही मूल साहित्य है। यह वह कसौटी है जिसपर हम तदितर साहित्यको कसकर खरे और खोटेका * ज्ञान कर सकते हैं। इस प्रकार आगमसाहित्यमें जहाँ जैनधर्मसे सम्बन्ध रखनेवाले जीवादि तत्त्वोंपर विविध प्रकारसे प्रकाश डाला गया है वहाँ मोक्षमार्गके अङ्गभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके अधिकारी कौन-कौन जीव हैं, यह बतलाते हुए लिखा है कि जिसका संसार में रहनेका अंधिकसे अधिक अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल शेष है और जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त है उसके यदि देशनालब्धि श्रादि चार लब्धियोंपूर्वक करणलब्धि होती है तो सर्वप्रथम यह जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। यदि यह जीव कर्मभूमिज तिर्यञ्च है तो संयमासंयमको और कर्मभूमिज मनुष्य है तो संयमासंयम या संयमको भी उत्पन्न कर सकता है। इतना अवश्य है कि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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