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________________ 208 वर्ण, जाति और धर्म तो श्रावकोंकी इसके प्रति आस्था ही थी और न वे इसे पहिनना आवश्यक ही मानते थे। इसके सार्वत्रिक प्रचारका कारण वर्तमान साधु समाज और कुछ पण्डित ही हैं। उन्होंने ही श्रावकोंके मनमें यह धारणा पैदा की है कि जो श्रावक यज्ञोपवीत धारण नहीं करता वह न तो साधुको आहार देनेका अधिकारी हैं और न जिनेन्द्रदेवकी पूजा ही कर सकता है। इसका यह तात्पर्य नहीं कि सभी साधु और पण्डित यज्ञोपवीतके पक्षपाती हैं / आचार्य सूर्यसागर महाराज इस कालमें सबसे महान् आचार्य हो गये हैं। उन्होंने मोक्षमार्ग में इसे कभी भी उपयोगी नहीं माना है। बहुतसे विचारक पण्डितोंका भी यही मत है। . अबसे लगभग 300 वर्ष पहिले नाटक समयसार आदि महान् ग्रन्थों के रचयिता पण्डितप्रवर आशाधरजी हो गये हैं / उन्होंने 'अर्धकथानक' नामकी एक पद्यबद्ध आत्मकथा लिखी है। उसमें उन्होंने अपनी मुख्यमुख्य जीवनघटनाएँ लिपिबद्ध की हैं। उसके अनुसार एक बार वे अपने एक मित्र और श्वसुरके साथ भटक कर एक चोरोंके गाँवमें पहुँच गये। वहाँ रक्षाका और कोई उपाय न देख कर उन्होंने रात्रिको ही धागा बँट कर यज्ञोपवीत पहिन लिए और माटीका तिलक लगा कर ब्राह्मण बन गये। जिन शब्दोंमें उन्होंने इस घटनाको चित्रित किया है यह उन्हींके शब्दोंमें पढ़िए 'सूत काढ़ि डोरा बट्यो, किए जनेऊ चारि। . पहिरे तीनि तिहूँ जने, राख्यो एक उबारि / / माटी लीनी भूमिसों, पानी लीनो ताल। विप्र में तीनों बनें, टीका कीनों भाल / / ये उनके शब्द है / इससे स्पष्ट है कि यज्ञोपवीत जैन परम्परामें कभी भी स्वीकृत नहीं रहा है और यह उचित भी है, क्योंकि मोक्षमार्गमें इसका रञ्चमात्र भी उपयोग नहीं है / तथा जिससे समाजमें ऊँच-नीचका भाव बद्धमूल हो ऐसी समाजिक व्यवस्थाको भी जैनधर्म स्वीकार नहीं करता।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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