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________________ यज्ञोपवीत मीमांसा 207 जिनको देखते हुए जैनधर्ममें यज्ञोपवीतको स्थान नहीं मिल सकता / खुलासा इस प्रकार है 1. प्राचीन जैन साहित्यमें 'यज्ञ' शब्द न तो व्रतोंवे अर्थमें आता है और न पूजाके अर्थमें ही उपलब्ध होता है। 'यज्ञ' इस शब्द द्वारा मुख्यतया ब्राह्मण धर्मके क्रियाकाण्डका ही बोध होता है। 2. भगवान् ऋषभदेवने तीन वर्णकी स्थापना करते समय क्षत्रिय और वैश्योंको वर्णके चिह्नरूपसे यज्ञोपवीत धारण करनेका उपदेश नहीं दिया था। 3. प्रतिमाओंके कथन में और खासकर ग्यारहवीं प्रतिमाके कथनमें खण्डवस्त्र और लंगोटीके साथ यज्ञोपवीतका कहीं भी उल्लेख नहीं पाया जाता। 4. श्रावकके व्रतों को स्त्रियाँ और तिर्यञ्च भी धारण करते. हैं। परन्तु उनके व्रतका चिह्न क्या हो इसका कहीं विधान देखनेमें नही आया। 5. गृहस्थ स्त्रियाँ देवपूजा करती हैं और मुनियोंको आहार भी देती हैं। यदि यज्ञोपवीतके बिना कोई गृहस्थ इन कार्योंकी करनेका अधिकारी नहीं है तो उनसे ये कार्य कैसे कराये जाते हैं / 6. जिन प्रमुख प्राचीनतम पुराणोंमें यज्ञोपवीतका उल्लेख है वे इसके स्वरूप, कार्य और आकार आदिके विषयमें एकमत नहीं है / 7. तथा सोमदेवसूरि चार वर्गों के कर्मके साथ यज्ञोपवीतविधिको लौकिक बतलाकर इसमें वेद और मनुस्मृति आदिको प्रमाण मानते हैं। धार्मिक विधिरूपसे वे इसका समर्थन तो छोड़िए, उल्लेख तक नहीं करते। ये व इसी प्रकार के और भी बहुतसे तथ्य हैं जो हमें यह माननेके लिए बाध्य करते हैं कि जैनधर्ममें मोक्षमार्गकी दृष्टि से तो यज्ञोपवीतको स्थान है ही नहीं / सामाजिक दृष्टिसे भी इसका कोई महत्त्व नहीं है / इसे धारण करना और इसका उपदेश देना मात्र ब्राह्मणधर्मका अन्धानुकरण है। ___ यह तो सुविदित बात है कि आजसे लगभग 30 वर्ष पूर्व उत्तर भारत और गुजरातमें यज्ञोपवीतका नाम मात्रको भी प्रचार नहीं था। कुछ * व्रती श्रावकोंके शरीरपर ही इसके कभी कभी दर्शन हो जाते थे। दक्षिण भारतमें भी इसका सार्वत्रिक प्रचार था यह भी नहीं कहा जा सकता। न
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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