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________________ 210 वर्ण, जाति और धर्म इन भावोंको उत्पन्न करनेवाला यदि मनुष्य है तो उन्हें उत्पन्न करते समय उसकी आयु आठ वर्षकी अवश्य होनी चाहिए। इससे कम आयुवाले मनुष्यको संयमासंयम और संयमधर्मकी प्राप्ति नहीं होती। सम्यक्त्वके लिए यह नियम है कि यदि पर्यायान्तरसे वह साथमें आया है तो यह नियम लागू नहीं होता। किन्तु यदि वर्तमान पर्यायमें उसे उत्पन्न किया है तो उसे उत्पन्न करते समय भी उसकी आयु आठ वर्षकी अवश्य होनी चाहिए। किन्तु संसारमें रहनेका काल कमसे कम शेष रहनेपर यह जीव सम्यग्दर्शनादिको उत्पन्न करता है तो पूर्वोक्त अन्य नियमोंके साथ उसका मनुष्य होना आवश्यक है / ऐसा मनुष्य अन्तर्मुहूर्तके भीतर इन सम्यग्दर्शन आदिको उत्पन्न कर मोक्षका अधिकारी होता है। आगम साहित्यमें इन भावोंको उत्पन्न करनेके लिए उक्त नियमोंके सिवा अन्य कोई नियम नहीं बतलाये गये हैं। इतना अवश्य है कि आगम साहित्यमें जिन मनुष्यादि पर्यायोंमें इन भावोंकी उत्पत्ति होती है उनका विचार आध्यात्मिक दृष्टि से किया गया है, शरीरशास्त्रकी दृष्टिसे नहीं, इसलिए अध्यात्मके अनुरूप शरीरशास्त्रकी दृष्टिसे विचार करनेवाले छेदशास्त्र आदि चरणानुयोगके ग्रन्थोंमें बतलाया गया है कि कर्मभूमिज मनुष्योंमें भीजोशरीरसे योनि आदि अवयववाले मनुष्य हैं जिन्हें कि लोकमें स्त्री कहते हैं और योनि व मेहन आदि व्यक्त चिह्नोंसे रहित जो मनुष्य हैं जिन्हें कि लोकमें हिजड़ा व नपुंसक कहते हैं, इन दोनों प्रकारके मनुष्योंको सम्यक्त्व और संयमासंयमभावकी प्राप्ति तो हो सकती है / किन्तु इन्हें उस पर्यायमें रहते हुए संयमभावकी प्राप्ति नहीं हो सकती। ___ यह मूल आगम साहित्य व उसके अङ्गभूत साहित्यका अभिप्राय है। इसमें वस्तुभूत आध्यात्मिक योग्यता और शारीरिक योग्यताके. आधारसे ही विचार किया गया है। चार वर्णसम्बन्धी लौकिक मान्यताके आधारसे नहीं, क्योंकि वह न तो जीवनकी आध्यात्मिक विशेषता है और न शारीरिक विशेषता हो है। आजीविका आदि लौकिक व्यवहारके
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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