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________________ 204 वर्ण, जाति और धर्म प्रचार देखा जाता है। तथा जो विवाहित गृहस्थ हैं वे एक अपना और एक अपनी पत्नीका इस प्रकार तीन-तीन लरके दो यज्ञोपवीत धारण करते हुए भा देखे जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि महापुराणके बाद प्रायः अधिकतर लेखकोंने यज्ञोपवीत और गर्भाधानादि क्रियाओंको स्वीकार कर लिया है। प्राचार्य जिनसेनके साथ उन सबके कथनका सार यह है कि पूजा करने और दान देनेका वही तीन वर्णका गृहस्थ अधिकारी है जिसने यज्ञोपवीतको धारण किया है। . पद्मपुराण और हरिवंशपुराण- , यज्ञोपवीतके पक्षमें महापुराण और उसके उत्तर कालवर्ती साहित्यका यह मत है / किन्तु इससे भिन्न एक दूसरा विचार और है जो महापुराणके पूर्वकालवर्ती पद्मपुराण और हरिवंशपुराणमें वर्णित है। इन दोनों पुराण ग्रन्थों में इसे यज्ञोपवीत नहीं कहा गया है। तीन वर्णके प्रत्येक मनुष्यको इसे धारण करना चाहिए यह भी इन पुराण ग्रन्थोंसे नहीं विदित होता / महापुराणमें गर्भान्वय श्रादि जिन क्रियाओंका विवेचन दृष्टिगोचर होता है उनकी इन पुराणकारोंको जानकारी थी यह भी इन पुराणोंसे नहीं जान पड़ता। भरत महाराजने ब्राह्मण वर्णकी स्थापना की यह मान्यता महापुराणसे पूर्व की है, इसलिए इसका उल्लेख इन पुराणोंमें अवश्य हुश्रा है / किन्तु व्रतोंका चिह्न मानकर सब ब्राह्मणोंको यज्ञोपवीत अवश्य धारण करना चाहिए इस मतसे ये पुराणकार सहमत नहीं जान पड़ते। उन्होंने इसका जो विवरण उपस्थित किया है वह बड़ा ही दिलचस्प जान पड़ता है। पद्मपुराण के कर्ता आचार्य रविषेण उसे मात्र आभूषण मानते हुए प्रतीत होते हैं। उनके इसके विषयमें कहे गये 'सरत्नेन चामीकरमयेन सूत्रचिह्नन' शब्द ध्यान देने योग्य हैं। इन शब्दोंका अर्थ होता है-'रत्न युक्त स्वर्णमय सूत्रचिह्न' / विचार कीजिए, इन शब्दोंका - फलितार्थ रत्न जटित स्वर्णमय हारके सिवा और क्या हो सकता है। आज-कल जब किसी
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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