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________________ 205 यज्ञोपवीत मीमांसा खाप्त समारम्भमें सम्मिलित होनेके लिए निश्चित व्यक्ति आमन्त्रित किये जाते हैं तो उनके वस्त्रके अग्रभागमें सामनेकी ओर पदक आदि लगानेकी पद्धति है / पद्मपुराणके अनुसार ब्राह्मण वर्णकी स्थापना करते समय भरत महराज द्वारा स्वीकार की गई पद्धति लगभग इसी प्रकार की जान पड़ती है। भरत महाराज सब प्रकारके साधनसम्पन्न देवोपनीत नौ निधियोंके स्वामी चक्रवर्ती राजा थे, इसलिए उन्होंने पदक आदिका उपयोग न कर उसके स्थानमें अपने अनुरूप रत्नजटित स्वर्णहारका उपयोग किया होगा यह सम्भव है। इससे अधिक इसे अन्य किसी प्रकारका महत्त्व नहीं दिया जा सकता। यह प्राचार्य रविषेणके कथनका सार है।। हरिवंशपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेनके कथनका फलितार्थ लगभग इसी प्रकारका है। किन्तु उसमें थोड़ा फरक है। वे इसे रत्नत्रयसूत्ररूपसे स्वीकार करके भी उसे न तो धागोंका बना हुआ मानते हैं और न स्वर्णसूत्र ही मानते हैं। वे मात्र इतना स्वीकार करते हैं कि भरत महाराजने काकणीरत्नके आश्रयसे सम्यग्दृष्टि श्रावकोंको रत्नत्रयसूत्रसे चिह्नित किया / सम्यग्दृष्टि श्रावकोंको यह चिह्नित करनेका कार्य क्या हो सकता है इस बातका निर्णय करने के लिए हमें सर्व प्रथम काकणीरत्नके कार्यके ऊपर दृष्टिपात करना होगा। महापुराणमें ऐसे दो स्थल हमारी दृष्टिमें आये हैं जिनसे काकणी रत्नके कायोंपर प्रकाश पड़ता है। प्रथम स्थल विजया पर्वतकी गुफामें प्रकाश करनेके प्रसंगसे आया है। वहाँ बतलाया है कि भरत महाराजकी आज्ञासे गुफाकी दोनों ओर की भित्तियों पर काकणीरत्न का आश्रय लेकर सूर्य और चन्द्र उकेरे गये। दूसरा स्थान वृषभाचल पर्वत पर भरत महाराज द्वारा अपनी प्रशस्ति लिखानेके प्रसङ्गसे आया है। वहाँ काकणीरत्न द्वारा प्रशस्ति उकेरी गई यह बतलाया गया है / ये दो प्रमाण हैं जो काकणी रत्नके कार्य पर प्रकाश डालते है। जिस 1. 50 32, श्लो० 15 / 250 32, श्लो० 141 / .
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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