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________________ यज्ञोपवीत मीमांसा 203 महापुराणमें बतावतार क्रियाका विवेचन करते हुए यह भी बतलाया है कि जब उक्त ब्रह्मचारी विद्याध्ययन कर चुकता है तब वह उन समस्त चिह्नोंको छोड़ देता है जो उसके व्रतचर्या क्रियाके समय पाये जाते हैं। इस परसे बहुतसे मनीषी यह आशंका करते हैं कि बादमें उसके यज्ञोपवीत भी नहीं पाया जाता / स्वयं प्राचार्य जिनसेनने इस सम्बन्धमें कुछ भी निर्देश नहीं किया है, इसलिए इस प्रकारकी शंका होना स्वाभाविक है। किन्तु दीक्षान्वय क्रियाओंमें भी एक उपनीति क्रिया कही गई है और उसमें यज्ञोपवीत धारण करनेका विधान है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे जैनधर्ममें नवदीक्षित हो और चाहे कुल परम्परासे जैनी हो, आचार्य जिनसेनके अभिप्रायानुसार यज्ञोपवीतका धारण करना द्विजमात्र के लिए आवश्यक है। पहले ब्राह्मण वर्णकी स्थापनाके समय भी प्राचार्य जिनसेनने यज्ञोपवीतका उल्लेख किया है / इससे भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है। प्रकृतमें विचारणीय यह है कि प्रत्येक गृहस्थ कितने लरका यज्ञोपवीत धारण करे, क्योंकि ब्राह्मण वर्णकी उत्पत्तिका निर्देश करते समय तो आचार्य जिनसेनने भरत चक्रवतींके मुखसे यह कहलाया है कि जिस गृहस्थने जितनी प्रतिमाएँ स्वीकार की हों उसे उतने लरका यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए और आगे कन्वय क्रियात्रोंका निर्देश करते समय उन्होंने तीन लरके यज्ञोपवीतका उल्लेख किया है, इसलिए प्रत्येक गृहस्थके मनमें यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इनमेंसे किस वचनको प्रमाण मान कर चला जाय ? प्रश्न कुछ जटिल है और महापुराणमें इसका समाधान भी नहीं किया गया है। प्रत्युत दिखाई यह देता है कि जहाँ पर आचार्य जिनसेनको जो इष्ट प्रतीत हुआ वहाँ पर उन्होंने उसकी मुख्यतासे वर्णन कर दिया है। पूर्वापर अविरोधता कैसे बनी रहे इसका उन्होंने ध्यान नहीं रखा है। परिणाम यह हुआ है कि वर्तमान कालमें जितने श्रावक हैं * उनमें से एक भी श्रावक महापुराणमें प्रतिपादित विधिके अनुसार यज्ञोपवीत . धारण नहीं करता। इसके विपरीत प्रायः तीन लरके यज्ञोपवीतका सर्वत्र
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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