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________________ 16. ब्राह्मणवर्णमीमांसा वहाँ स्नान आदिका पूरी तरहसे निषेध ही किया गया है। इससे मालूम पड़ता है कि मोक्षमार्गमें जिस प्रकार स्नान आदिके लिए कोई स्थान नहीं है उसी प्रकार छूत और अछूतपनके लिए भी कोई स्थान नहीं है, क्योंकि जैनधर्म वर्णाश्रम धर्म नहीं है, इसलिए इसमें यह मनुष्य स्पृश्य है और यह मनुष्य अस्पृश्य है इसके लिए रञ्चमात्र भी स्थान नहीं हो सकता / तथा यह कारण बतलाकर किसीको धर्माधिकारसे वञ्चित भी नहीं किया जा सकता। ब्राह्मणवर्ण मीमांसा ब्राह्मणवर्णकी उत्पत्ति __पहले हम तीन वर्गों की मीमांसा कर आये हैं। एक चौथा वर्ण ब्राह्मण है / अन्य वर्गों के समान इस वर्णका भी आगमसाहित्यमें और पुराण कालसे पूर्वके आचार ग्रंथों में नामोल्लेख तक नहीं किया गया है / इस आधारसे यदि वर्णव्यवस्थाको जैन परम्परामें पुराणकालकी देन कहें तो कोई अत्युक्ति न होगी। पुराणोंमें सर्व प्रथम इसका नामोल्लेख आचार्य जयसिंहनन्दिने वराङ्गचरितमें किया है। वहाँ उन्होंने जन्मसे ब्राह्मणवर्णकी बड़े ही कठोर शब्दोंमें भर्त्सना करते हुए उनके जीवनका सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। जन्मसे कोई वर्ण हो सकता है इसके वे तीव्र विरोधी हैं। उनके मतसे लोकमें जो दयाका पालन करते हैं वे ही ब्राह्मण हैं। वराङ्गचरितके बाद क्रमसे पद्मपुराण हरिवंशपुराण और महापुराणका स्थान है / इन तीनों पुराणों में ब्राह्मणवर्णकी उत्पत्ति लगभग एक प्रकारसे बतलाई गई है। इन पुराणोंके कथनका सार यह है कि दिग्विजयके बाद सुखपूर्वक राज्य करते हुए भरतचक्रवतीके मनमें एक बार . जिनधर्मानुयायी गृहस्थोंका आदर-सत्कार करनेका विचार आया / तदनुसार
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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