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________________ 118 वर्ण, जाति और धर्म उसने देश-देशान्तरसे व्रती श्रावकोंको आमन्त्रित किया। तथा उनकी परीक्षाके लिए उसने मुख्य राजप्रसादके सामनेके प्रांगणमें जौ आदि धान्योंके नव अंकुर उत्पन्न कराये। भरतचक्रवर्तीने आमन्त्रणको घोषणा गाँव-गाँव ढिंढोरा पिटवाकर कराई थी, इसलिए धनके लोभवश प्रती श्रावकोंके साथ बहुतसे अव्रती गृहस्थ भी चले आये। किन्तु जो अनंती गृहस्थ थे वे तो हरित अंकुरोंको कुचते हुए राजप्रसादमें प्रवेश करने लगे और जो व्रती गृहस्थ थे वे बाहर ही खड़े रहे। यह देखकर भरतचक्रवर्तीने अवती गृहस्थोंको तो बाहर निकलवा दिया और व्रती गृहस्थोंको दूसरे मार्ग से भीतर बुलवाकर न केवल उन्हें दान सम्मानसे सम्मानित किया / किन्तु व्रती गृहस्थोंकी 'ब्राह्मण' इस नामबाली एक सामाजिक उपाधि स्थापित की और इस बातकी पहिचान के लिए कि ये रत्नत्रयधारी गृहस्थ हैं उन्हें हेमसूत्र या रत्नत्रय सूत्र नामक सामाजिक चिह्नसे चिह्नित किया / जैन पुराणोंके अनुसार यह ब्राह्मणवर्णकी उत्पत्तिका संक्षिप्त इतिहास है। ब्राह्मणवर्ण और उसका कर्म यह तो स्पष्ट है कि भरतचक्रवर्तीने जिन व्रती श्रावकोंको आमन्त्रितकर 'ब्राह्यण' इस नामकी उपाधि दी थी और दानादि सम्मानसे सम्मानित किया था वे इसके पूर्व क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रवर्णके ही मनुष्य थे। 'ब्राह्मण' उपाधि मिलनेके बाद ही वे लोकमें ब्राह्मण कहे जाने लगे और अपनी पहिचानके लिए रत्नत्रयसूत्र धारण करने लगे थे। प्रकृतमें विचारणीय यह है कि वे इसके बाद भी पहलेके समान अपनी आजीविका करते रहे या भरतचक्रवर्तीने उनकी श्राजीविका भी बदल दी ? जहाँतक वराङ्गचरित, पद्मपुराण और हरिवंशपुराणसे इस प्रश्नका सम्बन्ध है, यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि व्रती श्रावकोंके लोकमें ब्राह्मण इस नामसे प्रसिद्ध हो जानेपर भी वे अपनी आजीविका असि आदि षट कर्मसे ही करते रहे / इतने मात्रसे उनकी आजीविका नहीं बदल गई। वराङ्गचरित आदि उक्त
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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