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________________ वर्णमीमांसा सम्हाल पर ही बल दिया गया है, स्नानादिरूप बामशुद्धि पर नहीं। इस भावको व्यक्त करनेवाला यशस्तिलक चम्पूका यह श्लोक ध्यान देने योग्य है-- एतद्विधिन धर्माय नाधर्माय तदक्रियाः / धर्मपुष्पावतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् // भाश्वास 8, पृ० 373 / तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार दर्भ, पुष्प और अक्षत श्रादिसे की गई वन्दनादि विधि न तो धर्मके लिए होती है और दर्भ आदि द्वारा वन्दनादि विधि नहीं करना न अधर्मके लिए होती है उसी प्रकार स्नान आदि विधि न धर्मके लिए है और उसका नहीं करना अधर्मकारक भी नहीं है / ___ यद्यपि आजकल अधिकतर आर्यिका, ऐलक और क्षुल्लक प्रति दिन वस्त्र बदलते हैं / शरीरका स्नान आदि द्वारा संस्कार करते हैं। वस्त्रका प्रक्षालन स्वयं या अन्यके द्वारा कराते. हैं, एकाधिक वस्त्र और चटाई श्रादि रखते हैं, कमण्डलु और चटाई आदिको लेकर चलनेके लिए गृहस्थ और भृत्य आदिका उपयोग करते हैं। इतना ही नहीं, उनके पास और भी अनेक प्रकारका परिग्रह देखा जाता है। परन्तु उनकी इस सब प्रवृत्तिको न तो उस पदके अनुरूप ही माना जा सकता है और न ऐसी प्रवृत्ति करनेवाला व्यक्ति मोक्षमार्गी ही हो सकता है / एक प्रकारसे देखा जाय तो वर्तमानकालमें अधिकतर मुनि, आर्यिका, ऐलक और क्षुल्लक इस सबने अन्तरङ्ग परिणामोंकी तो बात छोड़िए, बाह्य आचार तकको तिलाञ्जलि दे दी. है / साधुका गृहस्थोंका आमन्त्रण प्राप्तकर विवक्षित नगरादिके लिए गमन करना, जुलूस और गाजे-बाजेके साथ नगरमें प्रवेश करना, ऐसे स्थानपर, जहाँ सबका प्रवेश निषिद्ध है और जो अनावृत द्वार नहीं है, ठहरना, गृहस्थोंके द्वारा निर्दिष्ट स्थानपर मल और मूत्र आदिका विसर्जन करना तथा अपने साथ मोटर, साइकिल और भृत्य आदिको रखकर चलना यह सब मुनिधर्म की विडम्बना नहीं हैं तो और क्या है ? परन्तु वर्तमानमें यह सब चलता
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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