________________ 164 वर्ण, जाति और धर्म ___ यह तो मुनिधर्ममें बाह्मशुद्धिकी स्थिति है। अब गृहस्थधर्ममें बाह्यशुद्धिको कहाँ कितना स्थान है इस पर विचार कीजिये। गृहस्थ धर्मकी कुल कक्षाएँ ग्यारह हैं / आर्यिका अट्ठाईस मूलगुणोंका पालन करती हैं, परन्तु उनका समावेश गृहस्थधर्मके अन्तर्गत होकर भी उन्हें एक शाटिकामात्र परिग्रहको छोड़कर अन्य सब प्राचार मुनिके समान करना पड़ता है। वे भी मुनिके समान न स्नान करती हैं और न दतौन आदि द्वारा जिह्वा और दाँतोको साफ करती हैं / जिस साड़ीको उन्होंने पहिना है उसे ही निरन्तर पहिने रहती हैं / वर्षा श्रादिके निमित्तसे उसके गीली हो जानेपर एकान्तमें उसे मुखा कर पुनः पहिन लेती हैं / तात्पर्य यह है कि आर्यिकाएँ स्वीकृत एक साड़ीको छोड़कर अन्य किसी प्रकारका वस्त्र स्वीकार नहीं करती / स्वीकृत साडीके जीर्ण होकर फट जाने पर आचार्यकी अनुज्ञापूर्वक ही वे दूसरी साड़ीको स्वीकार करती हैं। यह आर्यिकानोंका शुद्धिसम्बन्धी लौकिक धर्म है। ऐलक, क्षुल्लक और क्षुल्लिकानोंका शुद्धिसम्बन्धी लौकिक धर्म लाभग इसी प्रकारका है। यद्यपि इन तीनोंके मूलगुणोंमें अस्नानव्रत और अदन्तधावन व्रत सम्मिलित नहीं हैं, इसलिए ये इन व्रतोंका पूरी तरहसे पालन नहीं करते / परन्तु इतना अवश्य है कि इनमेंसे जिसके लिए एक या दो जितने वस्त्र स्वीकार करनेकी विधि बतलाई है वह उनसे अधिक वस्त्रोंको नहीं रखता / प्रथमादि प्रतिमासे लेकर दसवीं प्रतिमा तकके अन्य गृहस्थों के लिए भी इसी प्रकार अलग-अलग जो नियम बतलाये हैं उन नियमोंके अन्तर्गत रहते हुए ही वे लौकिक धर्मका आश्रय करते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकाश्रित व्यवहारशुद्धि धर्मका आवश्यक अङ्ग नहीं है / वह तो जहाँ जितनी आत्माको त्यागरूप निर्मल परिणतिरूप धर्मके रहते हुए अविरोधरूपसे सम्भव है, की जाती है / किन्तु उसके करनेसे न तो गुणोत्कर्ष होता है और नहीं करनेसे न गुणहानि होती है / वास्तवमें गुणोत्कर्ष और गुणहानिका कारण आत्माका निर्मल और मलिन परिणाम है / अतः जैनधर्ममें आत्माके अन्तरङ्ग परिणामोंकी