________________ वर्णमीमांसा 163 ___ साधुके अट्ठाईस मूलगुणोंमें अदन्तधावन और अस्नान ये दो मूलगुण बतलाये हैं। साधुको आहार लेनेके पूर्व या बादमें दाँतों और जिह्वाकी सफाई नहीं करनी चाहिए। भोजनके अन्तमें वह कुरला द्वारा उनकी सफाई करनेका भी अधिकारी नहीं है। जलादि जिस पदार्थको वह मुख द्वारा ग्रहण करता है उसका उपयोग वह जिह्वा आदिकी सफाई के लिए नहीं कर सकता। यदि भोजनके मध्यमें अन्तराय होता है तो वह अन्तिम जलको भी ग्रहण नहीं कर सकता / वह किसी भी अवस्थामें अँगुली, नख और तृणादि द्वारा दाँतोंमें लगे हुए मलको दूर नहीं कर सकता। इतना करने पर ही साधु द्वारा अदन्तधावन मूलगुणका पालन करना सम्भव माना जाता है / अस्नान मूलगुणके पालन करनेकी भी यही विधि है / मलके तीन भेद हैं-जल्ल, मल और स्वेद / जो मल शरीरके समस्त भागोंको ढक लेता है उसे जल्ल कहते हैं। पुरीष मूत्र, थूक और खखार श्रादिको मल कहते हैं तथा पसीनाको स्वेद कहते हैं। साधुका शरीर इन तीनों प्रकारके मलोंसे लिप्त होने पर भी वह स्नान नहीं करता। लोकमें जो पदार्थ अशुचि या अस्पृश्य माना जाता है उसका स्पर्श होने पर या शरीरसे संलग्न रहने पर साधु उसे दूर करनेके अभिप्रायसे भी स्नान नहीं करता यह उक्त कथनका तात्पर्य है / कितने ही साधु अपने लोकोत्तर उक्त गुणके कारण मलधारी देव इस उपाधिसे विभूषित किये गये। इसका भी यही कारण प्रतीत होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकमें जिसे बाह्य शुद्ध कहते हैं, साधुके जीवनमें उसके लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए यह तो सुनिश्चित है कि साधुके मनमें यह व्यक्ति या अन्य कोई पदार्थ स्पृश्य है और यह अस्पृश्य है ऐसा विकल्प ही नहीं उठ सकता और यह ठीक भी है, क्योंकि उसने लोकमें प्रसिद्ध लोकाचाररूप धर्मका परित्याग. कर परिपूर्णरूपसे आत्मधर्मको स्वीकार किया है, इसलिए शरीरादिक्के आश्रयसे संस्कार करनेकी जितनी विधियाँ हैं उनका वह मन, वचन और कायसे पूरी तरह त्याग कर देता है /