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________________ 112 वर्ण, जाति और धर्म पनका कोई भेद नहीं है। इस अर्थको व्यक्त करनेवाला त्रैवर्णिकाचारका वचन इस प्रकार है विप्रक्षत्रियविटशूद्रा प्रोक्ताः क्रियाविशेषतः। जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः / / 142 // 10 // जो जिसकी प्रकृति नहीं होती है उसपर बाहरसे प्रकृतिविरुद्ध यदि कोई वस्तु थोपी जाती है तो उसका जो परिणाम होता है ठीक वही परिणाम जैनधर्मपर जन्मसे वर्णव्यवस्थाके थोपनेका हुआ है / किसी मनुष्यको मल-मूत्र साफ करते समय या चाण्डाल. आदिका कर्म करते समय न छुआ जाय इसमें किसीको बाधा नहीं है। किन्तु इतने मात्रसे वह और उसका वंश सर्वदा अछूत बना रहे और वह धार्मिक अनुष्ठान द्वारा आत्मोन्नति करनेका अधिकारी न माना जावे इसे जैनधर्म स्वीकार नहीं करता / सोमदेवसूरिने नीतिवाक्यामृतमें लिखा है कि जिनका आचार शुद्ध है; जो गृह, पात्र अोर वस्त्रादिकी शुद्धिसे युक्त हैं तथा स्नान आदि द्वारा जिन्होंने अपने शरीरको भी शुद्ध कर लिया है वे शूद्र होकर भी देव, द्विज और तपस्वियोंकी पूजा आदि कर्मको करनेके अधिकारी हैं / पण्डितप्रवर अाशाधरजीने भी सागारधर्मामृतमें इस. सत्यको स्वीकार किया है। धर्म आत्माकी परिणति विशेष है। वह बाह्य शुद्धिके समय होता है और अन्य कालमें नहीं होता ऐसा कोई नियम नहीं है। जिस प्रकार किसी साधुके मल-मूत्र आदिके त्यागद्वारा शरीरशुद्धिके. कालमें साधुधर्मका सद्भाव देखा जाता है उसी प्रकार वह रोगादि निमित्तवश या अन्य किसी कारणवश साधुके बाह्य मलसे लिप्त अवस्थामें भी देखा जाता है / वह बाह्य मलसे लिप्त है, इसलिए मुनिधर्म उससे छुटकारा पा लेता है और शरीर शुद्धिसम्पन्न है, इसलिए उसका मुनिधर्म पुनः लौट आता है ऐसा नहीं है / बाह्य शुद्धिको स्थान अवश्य है. किन्तु उसकी एक मर्यादा है।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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