________________ वर्णमीमांसा है। वहाँ गृहस्थ अवस्था में राज्य पदका भोग करते हुए भगवान् ऋषभदेव * के मुखसे कहलाया गया है कि कारु और अकारुके भेदसे शूद्र दो प्रकार के हैं। धोबी आदि कारु शूद्र हैं और उनसे भिन्न शेष सब अकारु शूद्र हैं / कारु शूद्र स्पृश्य और अस्पृश्यके भेदसे दो प्रकार के हैं। जो प्रजासे बाहर रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं और नाई आदि स्पृश्य शूद्र हैं। शूद्र वर्णके इन भेदोंकी चरचा श्रुतसागर सूरिने घटप्राभूतकी टीकामें की है / तथा त्रैवर्णिकाचारमें भी स्पृश्य शूद्रोंके कुछ भेद दृष्टिगोचर होते हैं ! कहीं कहीं कारु शूद्रोंके भोज्य शुद्ध और अभोज्य शूद्र इन भेदोंका भी उल्लेख मिलता है। तात्पर्य यह है कि महापुराणके बाद किसी न किसी रूपमें उत्तरकालीन जैन साहित्यमें शूद्रवर्णके स्पृश्य और अस्पृश्य भेदोंको स्वीकार कर लिया गया है / साथ ही महापुराणमें शूद्रोंको यत्किञ्चित् जो भी धार्मिक अधिकार दिये गये हैं उनमें किसी किसीने और भी न्यूनता कर दी है। उदाहरणार्थ महापुराणमें शूद्रमात्रके लिए एक शाटकव्रतका उल्लेख है / किन्तु प्रायश्चित्तचूलिकाकार यह अधिकार सब शूद्रोंका नहीं मानते / वे कहते हैं कि कारुशूद्रोंमें जो भोज्य शूद्र हैं उन्हें ही तुल्लक व्रतकी दीक्षा देनी चाहिए / यहाँ यह स्मरणीय है कि महापुराणमें शूद्रवर्णके अवान्तर भेद राज्यपदका भोग करते हुए भगवान् ऋषभदेवके मुखसे कराये गये हैं और उन्हें एक शाटकव्रत तकका धर्माधिकार भरतचक्रवर्तीके सुखसे दिलाया गया है। यही कारण है कि महापुराणसे उत्तरकालमें जैनधर्मके मर्मज्ञ गुणभद्र, सोमदेव और आशाधर प्रभृति जो भी कतिपय आचार्य और विद्वान् हुए हैं उन्होंने इस धार्मिक हस्तक्षेपको पूरे मनसे स्वीकार नहीं किया है / इतना ही नहीं, त्रैवर्णिकाचारके कर्ता सोमसेन भट्टारक तकको आगमविहित सत्यका अपलाप करनेमें असमर्थ होनेसे यह स्वीकार करना पड़ा है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारों वर्ण क्रियाओंके 'भेदसे कहे गये हैं / जैनधर्मके पालन करनेमें दत्तचित्त ये सब बन्धुके समान हैं अथात् रत्नत्रयधर्मको पालन करने की दृष्टिसे इनमें नीच-ऊच