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________________ 110 वर्ण, जाति और धर्म मुनिको विधिपूर्वक आहार देकर और पुण्यबन्ध कर उत्तम भोगभूमि प्राप्त की / लगभग इसी प्रकारकी एक कथा प्रद्युम्नचरितमें आती है। उसमें बतलाया है कि हेमरथ राजाकी पत्नी चन्द्रप्रभाको राजा मधुने बलात् अपहरण कर उसे पट्टरानो बनाया और कालान्तरमें दोनोंने मुनिधर्म और आर्यिकाके व्रत स्वीकार कर सद्गति पाई / ये ऐसे उदाहरण हैं जो अपने में स्पष्ट हैं / यहाँ पर अन्तके दो उदाहरण हमने केवल यह बतलाने के लिए उपस्थित किये हैं कि ऐसे व्यक्ति भी, जिन्होंने सामाजिक नियमोंका उल्लंघन किया है, धर्म धारण करनेके पात्र माने गये हैं। इससे धार्मिक विधि-विधानोंका सामाजिक रीति-रिवाजोंके साथ सम्बन्ध नहीं है यह स्पष्ट हो जाता है। ____संक्षेपमें उक्त कथनका सार यह है कि मनुस्मृति आदि ब्राह्मण ग्रन्थोंमें विवाहके जो नियम दिये गये हैं उन्हें महापुराणके समयसे लेकर जैन परम्परामें भी स्वीकार कर लिया गया है। परन्तु इतने मात्रसे पूर्वकालमें उन नियमोंका उसी रूपमें पालन होता था यह नहीं कहा जा सकता / स्पष्ठ है कि विवाह सामाजिक प्रथा होनेसे देश, काल और परिस्थितिके अनुसार समाजको सम्मतिपूर्वक उसमें परिवर्तन होता रहता है। महापुराणका यह वचन कि 'किसी कारणसे किसी कुटुम्बमें दोष लग जाने पर राजा श्रादिकी सम्मतिसे उसे शुद्ध कर लेना चाहिए।' इसी अभिप्रायको पुष्ट करता है। स्पृश्यास्पृश्य विचार यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि महापुराणके पूर्व कालवों जितना जैन पुराण साहित्य उपलब्ध होता है उसमें शूद्रके स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद दृष्टिगोचर नहीं होते। मात्र सर्वप्रथम महापुराणकी कुछ प्रतियोंमें पाये जानेवाले दो श्लोकोंमें शूद्रके इन भेदोंकी चरचा की गई
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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