________________ 180 वर्ण, जाति और धर्म राजतन्त्रमें जन्मसे ही एक व्यक्ति समाजके सञ्चालनका और राज्यका कर्ता धर्ता मान लिया गया है। समाजको उसमें ननु न च करनेका अधिकार नहीं है / ब्राह्मणधर्मके अनुसार वर्णाश्रम धर्मकी स्थापना मुख्यतया इसी भूमिका पर हुई है। एक शूद्र मनुष्य ब्राह्मण वर्णके कर्तव्योंका पालन क्यों नहीं कर सकता इस प्रश्नको वहाँ कोई अवकाश नहीं है। यदि वह जन्मसे शूद्र है तो उसे जीवनभर शूद्र वर्णके लिए निश्चित किये गये धर्मका पालन करना ही होगा, अन्यथा वह राजाके द्वारा उसी प्रकार दण्डका अधिकारी है जिस प्रकार कोई व्यक्ति हिंसादि पाप करने पर उसका अधिकारी होता है। यह वर्णाश्रमधर्मको भूमिका है। किन्तु जैनधर्ममें इस भूमिकाके लिए कोई स्थान नहीं है, क्योंकि इस भूमिकाके अनुसार योग्यता, व्यक्तिस्वातन्त्र्य और स्वावलम्बनके सिद्धान्तका सर्वथा हनन होता है। अतएव ब्राह्मणधर्म वर्णव्यवस्थाको जिस प्रकार जन्मसे स्वीकार करता है उस प्रकार जैनाचार्य उसे जन्मसे स्वीकार नहीं करते। वे इसे मोक्षमार्गके सर्वथा विरुद्ध मानते हैं / महापुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन इसके अपवाद हैं। परन्तु इसके साथ सोमदेव सूरिके कथनानुसार यह भी निश्चित है कि जन्मसे वर्णव्यवस्थाका कथन न तो ऋषभदेवने किया था और न भरत चक्रवर्तीने ही। उसका आधार ये महापुरुष न होकर श्रुति और स्मृति ही हैं। . लौकिक व्यवस्थाका दूसरा आधार गणतन्त्र है। यह तो मानी हुई बात है कि कौन व्यक्ति क्या बने और क्या न बने इसके निर्णयका अधिकार दूसरैके हाथमें नहीं है। किन्तु जहाँ पर सामाजिक व्यवस्थाका प्रश्न है / अर्थात् सबको मिलकर बाह्य साधनोंके आधारसे परस्पर निर्वाहकी ऐहिक व्यवस्था करनी होती है वहाँ पर प्रत्येक व्यक्तिको एक समान योग्यताको स्वीकार करनेके बाद भी उसके सञ्चालनके लिए सबके सहयोगसे कुछ ऐसे नियम बनाये जाते हैं जो किसी हद तक प्रत्येक व्यक्तिकी आकांक्षा पूर्ति में सहायक होते हैं। साथ ही किसी हद तक सब व्यक्तियोंपर नियन्त्रण भी स्थापित