________________ वर्णमीमांसा 176 प्रकारका मतभेद तो श्रावकोंके बारह व्रतों और अन्य तत्त्वोंके प्रतिपादनमें भी देखा जाता है। उदाहरणार्थ आचार्य कुन्दकुन्द समाधिमरणको श्रावक के बारह व्रतोंके अन्तर्गत मानते हैं। जब कि अन्य प्राचार्य उसका बारह व्रतोंके बाहर स्वतन्त्ररूपमें उल्लेख करते हैं। इसलिए यदि वर्णाश्रमधर्मके विषयमें जैनाचार्योंमें परस्परमें मतभेद देखा जाता है तो इतने मात्रसे वह पूर्व कालमें जैनोंमें स्वीकृत नहीं रहा है यह कैसे कहा जा सकता है ? प्रश्न मार्मिक है / उसका समाधान यह है कि जैनाचार्यों में जैसा मतभेद श्रावकोंके बारह व्रतों या अन्य तत्त्वोंके प्रतिपादन करने में देखा जाता है, यह मतभेद उस प्रकारका नहीं है। वह मतभेद मात्र प्रतिपादनकी शैली पर आधारित है जब कि यह मतभेद तात्त्विक मूमिकाके आश्रित है। इस विषयको स्पष्टरूपसे समझनेके लिए हम एक उदाहरण देते हैं / इस समय हमारे देशमें डा० राजेन्द्रप्रसादजी राष्ट्रपति और पण्डित जवाहरलाल नेहरु प्रधान मन्त्री हैं। इस विषयमें यदि योग्यताके आधार से विचार किया जाय तो दोनों ही राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बननेके लायक हैं / इतना ही नहीं, विश्वका कोई भी व्यक्ति धर्म, जाति और देशभेदका विचार किये विना इन पदोंको प्राप्त करनेका अधिकारी है। इसे और भी स्पष्ट करके कहा जाय तो यह कहने में संकोच नहीं होता कि विश्वका प्रत्येक मनुष्य धार्मिक और लौकिक दृष्टि से उच्चसे उच्च पद प्राप्त करनेका अधिकारी है। इतना ही नहीं, विश्वके अन्य जिन प्राणियोंमें धर्माधर्मको समझनेकी योग्यता है वे भी अपनी-अपनी नैसर्गिक परिस्थितियोंके अनुरूप अपनेअपने जीवन में धर्मका विकाश कर सकते हैं। धर्म धारण करनेका ठेका केवल अमुक वर्गके मनुष्यों तक ही सीमित नहीं हैं / यह जैनधर्मकी भूमिका है। इसी भूमिकासे उसने चारों गतियोंमें यथायोग्य धर्मको स्वीकार किया है जिसका विस्तृतरूपसे विचार हम पहले कर आये है। ... किन्तु लौकिक भूमिका इससे भिन्न है। उसका विकाश मुख्यतया दो सिद्धान्तोंके आश्रयसे हुआ है-एक राजतन्त्र और दूसरा गणतन्त्र /