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________________ वर्णमीमांसा 18. करते हैं / यह व्यवस्था ब्राह्मणधर्मके सर्वथा विरुद्ध है इसमें सन्देह नहीं / जैनधर्मकी अपेक्षा इतना ही कहा जा सकता है कि आध्यात्मिक क्षेत्रमें यह ग्राह्य न होकर भी सामाजिक क्षेत्रमें व्यवहारसे मान्य ठहराई गई है। इसलिए ऋषभदेवने तीन वर्णकी और भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणवर्णकी स्थापना जैसा कि सोमदेव सूरि कहते हैं एक तो की न होगी और यदि की भी होगी तो वह ऊपरसे नहीं लादी गई होगी। किन्तु उन्होंने कर्मके अनुसार नामकरण करके यह प्रजाके ऊपर छोड़ दिया होगा कि वह अपने-अपने कर्मके अनुसार उस-उस वर्णको स्वीकार कर ले / ____ साररूपमें यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि महापुराणमें जो जन्मसे वर्णव्यवस्था और गर्भाधानादि तिरेपन क्रियाओं का उपदेश है उसे सोमदेव सूरि भरत चक्रवर्तीके द्वारा उपदिष्ट धर्म नहीं मानते / वे स्पष्ट कहते हैं कि यह लौकिक विधि है, इसलिए इसे वेद और मनुस्मृति आदि ग्रन्थोंके आधारसे प्रमाण मानना चाहिए / आत्मशुद्धिमें प्रयोजक जैनागमके आधारसे इसे प्रमाण मानना उचित नहीं है / तात्पर्य यह है कि शूद्रोंका उपनयन आदि संस्कार नहीं हो सकता, वे अध्ययन, यजन और दान आदि कर्म करने के अधिकारी नहीं हैं, उन्हें यज्ञोपवीत पूर्वक श्रावकधर्मकी दीक्षा और मुनिदीक्षा नहीं दी जा सकती; वे स्वयं चाहें तो संन्यास पूर्वक मरण होने तक एक शाटकव्रतको स्वीकार करके रहें इत्यादि जितना कथन आचार्य जिनसेनने किया है वह सब कथन सोमदेव सूरिके अभिप्रायानुसार उन्होंने वेद और मनुस्मृति श्रादि ग्रन्थोंके आधारसे ही किया है, उपासकाध्ययनसूत्रके आधारसे नहीं। ऋषभनाथ तीर्थङ्करने अपनी दिव्यध्वनि द्वारा जब ब्राह्मणवर्ण और गर्भान्वय आदि क्रियाओंका उपदेश ही नहीं दिया था। बल्कि भरत चक्रवर्तीके द्वारा पृच्छा करने पर उन्होंने इस चेष्टाको एक प्रकारसे अनुचित ही बतलाया था, इसलिए उपासकाध्ययन सूत्रमें ब्राह्मणवर्ण और गर्भान्वय आदि क्रियाओंका समावेश होना सम्भव भी नहीं है, क्योंकि गणधरोंने बारह अङ्गोंमें केवल तीर्थङ्करोंकी
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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