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________________ जातिमीमांसा 171 साहित्यमें जिन आचार्योंने जातियोंको अनादि माना है उन्होंने बीज-वृक्ष न्यायके अनुसार उनकी अनादिता स्वीकार की है / इस प्रकार यद्यपि दोनों परम्पराअोंने इनको अनादि माननेके कारण पृथक्-पृथक् दिये हैं तब भी किसी भी प्रकारसे जातियोंको अनादि मान लेने पर जो दोष आते हैं वे दोनों परम्परात्रोंमें समान रूपसे लागू होते हैं इसमें सन्देह नहीं। उदाहरणार्थ ब्राह्मण परम्पराके अनुसार ब्राह्मण माता पिताके योगसे जो सन्तान उत्पन्न होगी उसीमें ब्राह्मणत्व जातिका सम्बन्ध होकर वह बालक ब्राह्मण कहलावेगा। उसमें क्रिया मन्त्रों के द्वारा ब्राह्मणत्वके संस्कार करनेसे अन्य कोई नवीनता नहीं उत्पन्न होगी। जैसे यह तथ्य है उसी प्रकार जैन परम्परामें भी जो लोग जातियोंको अनादि मानते हैं उनके अनुसार भी ब्राह्मण माता पिताके योगसे उत्पन्न हुआ बालक ही ब्राह्मण कहलावेगा। उसमें क्रिया-मन्त्रोंके द्वारा संस्कार करने पर भी अन्य कोई ( जो ब्राह्मण बनाने में साधक हो ऐसी) नवीनता नहीं उत्पन्न हो सकेगी। ___ यह एक दोष है। जातियोंको अनादि माननेपर इसी प्रकार और भी बहुतसे दोष आते हैं जिनका परामर्श प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रमें विस्तारके साथ किया गया है। जैनधर्ममें जातियोंके नित्य पक्षको किसीने भी स्वीकार नहीं किया है, इसलिए वहाँपर यद्यपि नित्य पक्षको स्वीकार करके ही दोष दिखलाए गये हैं, परन्तु सन्तान पक्षको स्वीकार करनेपर भी वही दोष आते हैं, इसलिए उन ग्रन्थोंमें जातियोंकी अनादिता के खण्डनमें जो प्रमाण उपस्थित किए गये हैं उन्हें क्रमांक देकर संक्षेपमें यहाँपर दिखला देना आवश्यक है- 1. क्रियाओंका लोप होनेसे ब्राह्मण आदि जातियोंका लोप होना जैसे ब्राह्मण धर्ममें स्वीकार किया गया है उसी प्रकार जिनसेन प्रभृति प्राचार्य भी मानते हैं.। आचार्य जिनसेनने स्पष्ट कहा है कि जो ब्रह्मणादि वर्ण * वालों के लिए कही गई बृत्तिका उल्लंघनकर अन्य प्रकारसे वृत्तिका आश्रय लेता है उसपर राजाको नियन्त्रण रखना चाहिए, अन्यथा प्रजा वर्णसंकर
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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