________________ 170 वर्ण, जाति और धर्म अशानी है / बास्तवमें यह आत्मा न ब्राह्मण है, न वैश्य है, न क्षत्रिय है, . न शूद्र है, न पुरुष है, न नपुंसक है और न स्त्री है। वह तो एकमात्र 'ज्ञायकस्वभाय है। उसका आश्रय लेनेसे ही उसे परमपदकी प्राप्ति हो सकती है, अन्य प्रकारसे नहीं। किन्तु जैसे-जैसे जैनधर्ममें जातिवादका प्रभाव बढ़ता गया उसके अनुसार वे सत्र मान्यताएं भी साकार रूप लेती गई जो जातिवादको दृढ़मूल करनेमें सहायक हैं / ब्राह्मण धर्मकी एक मान्यता है कि प्रत्येक वर्णकी उत्पत्ति ब्रह्मासे हुई है / उसीने उनके अलग-अलग कर्तव्य कर्म भी निश्चित किये हैं / इसके विपरीत दूसरी मान्यता है कि सृष्टि अनादि है, अतः ब्राह्मण आदि जातियाँ भी अनादि हैं / ब्राह्मण धर्ममें तो इन मान्यताओंको स्वीकार किया ही गया है, जैनधर्ममें भी ये किसी न किसी रूपमें स्वीकार कर ली गई हैं। महापुराणमें आचार्य जिनसेनने कहा है कि 'नय.और तत्त्वको आननेवाला द्विज दूसरोंके द्वारा रची गई सृष्टिको दूरसे ही त्यागकर अनादि क्षत्रियोंके द्वारा रची गई धर्मसृष्टिको प्रमावना करे। तथा जो राजा इस सृष्टिको स्वीकार कर लें उन्हें यह कहकर कि तीर्थङ्करोंके द्वारा रची गई यह धर्मसृष्टि ही सनातन है, सृष्टि के कारणोंको प्रकाशमें लावे।' _ यहाँ पर यह स्मरणीय है कि एक तो जन्मसे वर्णव्यवस्थाको स्वीकार करने के अभिप्रायसे प्राचार्य जिनसेन अनादि क्षत्रिय शब्दका प्रयोग कर रहे हैं। दूसरे भरत चक्रवत्तोंके मुखसे जातिवादकी स्थापना कराकर उसे तीर्थङ्करोंके द्वारा रची गई धर्मसृष्टि बतला रहे हैं / मालूम पड़ता है कि उत्तरकालमें जैन परम्परामें जातियाँ अनादि हैं यह विचार इसी आधारपर पनपा है, इसलिए यहाँपर ब्राह्मणादि जातियोंकी अनादिता किसी प्रकार घटित हो सकती है या नहीं इसी सम्बन्धमें मुख्यरूपसे विचार करना है / यह तो है कि ब्राह्मण साहित्यमें ब्राहाणत्व आदि जातियोंको स्वतन्त्र और नित्य पदार्थ मानकर उनकी अनादिता स्वीकार की गई है और जैन