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________________ 166 जातिमीमांसा भूमिका पर खड़े होकर उच्चस्वरसे वे यह घोषित करनेमें समर्थ हुए कि 'शिष्ट पुरुषोंने मात्र व्यवहार चलानेके लिए दया, रक्षा, कृषि और शिल्पकर्मके आश्रयसे चार वर्ण कहे हैं। अन्य प्रकारसे ये चार वर्ण नहीं बनते / ' जातिवादके विरोधका यह चतुर्थ प्रस्थान है। इनके उत्तरकाल में हुए आचार्य रविषेण, हरिवंशपुराणके कर्ता आचार्य जिनसेन, प्रभाचन्द्र, अमितिगति और शुभचन्द्र आदि अन्य जितने आचार्योंने जातिवादका निषेधकर गुणपक्षकी स्थापना द्वारा अध्यात्मपक्षको बल दिया है उनके उस कथनका समावेश इसी चतुर्थ प्रस्थानके अन्तर्गत होता है। जातिवाद एक बला है। उसका प्रत्येक सम्मव उपाय द्वारा विरोध होना चाहिए इस तथ्यको अपने-अपने कालकी परिस्थितिके अनुरूप अधिकतर आचार्योंने स्वीकार किया है। पूर्वमें हम जातिवादके विरोधके जिन चार प्रस्थानोंका निर्देश कर आये हैं वे समय-समयपर किये गए उस विरोधके मात्र सूचक हैं। इससे स्पष्ट सूचित होता है कि जैनधर्मकी भूमिका प्रारम्भसे ही जातिवाद, कुलवाद और लिङ्गवादके विरोधकी रही है, क्योंकि जैनधर्मके अध्यात्मपक्ष और तदनुकूल व्यवहारपक्षके साथ इसकी किसी भी अवस्थामें सङ्गति बिठलाना कठिन ही नहीं असम्भव है, क्योंकि धर्मका सम्बन्ध अपनी-अपनी गतिके अनुसार मोक्षमार्गके अनुरूप होनेवाले आत्मपरिणामोंसे है / उसके होने में इनके स्वीकार करनेसे रञ्चमात्र भी सहायता नहीं मिलती। जातिवादका विरोध और तर्कशास्त्र - यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि महापुराण और परकालवती कुछ साहित्यको छोड़कर अन्य जितना प्रमुख जैन साहित्य उपलब्ध होता है उसने जातिवादका विरोध ही किया है। उस द्वारा यह बार-बार स्मरण कराया गया है कि जो मानता है कि मैं ब्राह्मण हूँ, मैं क्षत्रिय हूँ, मैं वैश्य हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं पुरुष हूँ, मैं नपुंसक हूँ, मैं स्त्री हूँ वह मूढ है
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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