________________ 168 वर्ण, जाति और धर्म . आचार्य पूज्यपादके जैनेन्द्र व्याकरणमें 'वर्णेनाहद्रूपायोग्यानाम्' यह. सूत्र अाया है और इस आधारसे कतिपय मनीषी यह कह सकते हैं कि शूद्रवर्णके मनुष्य जिनदीक्षाके अयोग्य हैं इस तथ्यको श्राचार्य पूज्यपाद भी स्वीकार करते थे. इसलिए यदि शूद्रोंको जिनदीक्षाके अयोग्य कहा जाता है तो इसमें जातिवादका कहाँ प्रवेश हो गया। किन्तु आगे चलकर इस सूत्र पर हम विस्तारके साथ विचार करनेवाले हैं / उससे यह स्पष्ट विदित हो जायगा कि यह सूत्र प्राचार्य पूज्यपादकी रचना नहीं होनी चाहिए / तत्काल. इतना कहना पर्याप्त है कि आचार्य पूज्यपादके द्वारा ऐसे सूत्रकी रचना होना सम्भव प्रतीत नहीं होता जिससे जैनधर्मके आत्माका हो हनन होता है। प्राचार्य पूज्यपादकी उक्त रचनामें पर्याप्त हेर-फेर हुआ है यह उसके दो प्रकारके सूत्रपाठोंसे ही विदित होता है, अतः यही सम्भव प्रतीत होता है कि किसीने अपने अभिप्रायकी पुष्टि के लिए इस सूत्रको भी उनके नामपर चढ़ानेकी चेष्टा की है। यह तो स्पष्ट है कि शरीर में रोग उत्पन्न होनेपर केवल उसका उपचार करना ही पर्याप्त नहीं होता, किन्तुं जिन बाह्य परिस्थितियोंके कारण उसकी उत्पत्ति होती है उनका निराकरण करना भी आवश्यक हो जाता है। जैनधर्ममें जातिवादरूपी रोगके प्रवेश करनेका कारण न तो जैनधर्मका अध्यात्म पक्ष है और न व्यवहार पक्ष ही उसका कारण है। यह संक्रामक रोग है जो बाहरसे आकर जैनधर्ममें प्रविष्ट हुआ है। इस सत्यको प्राचार्य पूज्यपादके उत्तरकालमें हुए आचार्य जटासिंहनन्दिने और भी अच्छी तरहसे अनुभव किया था। उन्होंने देखा कि अभी तक धार्मिक क्षेत्रमें ही इसका विरोध हुआ है / जो भूमि इसकी जननी है उसे साफ करनेका अभी प्रयत्न ही नहीं हुआ है। उन्होंने यह अच्छी तरहसे अनुभव किया कि यदि हम धार्मिक क्षेत्रको इससे अछूता रखना चाहते हैं तो हमें मुख्यतः सामाजिक क्षेत्रकी ओर विशेष रूपसे ध्यान देना पड़ेगा। न होगा वाँस न बजेगी वाँसुरी। जातिवादके विरोधकी उनकी यह भूमिका है। तभी तो इस