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________________ जातिमीमांसा किन्तु शरीरमें एक बार रोगके प्रवेशकर लेनेपर उसे निकाल बाहर फरना आसान काम नहीं है / कभी-कभी तो जितनी अधिक तीव्रताके साथ रोगका उपचार किया जाता है वह उतनी ही अधिक तीव्रतासे बढ़ने भी लगता है। जातिवादरूपी रोगके जैनधर्ममें प्रवेश कर लेनेपर उसका भी यही हाल हुआ है। एक ओर तो मोक्षमार्गपर आरूढ़ साधुसंस्था छिन्नभिन्न होकर धर्मके आध्यात्मिक पक्षके अनुरूप व्यवहारपक्षपर नियन्त्रण स्थापित करनेवाले प्रभावशाली व्यक्ति दुर्मिल होते गये और दूसरी ओर धर्मका अध्यात्मपक्ष पंगु होकर वह केवल प्राचीन साहित्यमें कैद होकर रह गया। प्राचार्य पूज्यपाद ऐसे ही नाजुक समयमें हुए हैं जब स्वामी समन्तभद्रके कालमें उत्पन्न हुई स्थितिमें और भी उग्रता आने लगी थी। तात्पर्य यह है कि उनके कालमें जातिवाद और लिङ्गवादको पूरा महत्त्व मिल चुका था, इसलिए आचार्य पूज्यपादको भी इन दोनोंका तीव्ररूपसे विरोध करनेके लिए कटिबद्ध होना पड़ा। वास्तवमें देखा जाय तो इन दोनोंमें प्रगाढ़ सख्यभाव है। इनमेंसे किसी एकको आश्रय मिलनेपर दूसरेको आश्रय मिलनेमें देर नहीं लगती। प्राचार्य पूज्यपाद इस कारण धर्मको होनेवाली विडम्बनासे पूर्णरूपसे परिचित थे। यही कारण है कि अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के सम्यक् अभिप्रायको मोक्षमार्गके अनुरूप जानकर उन्होंने भी इनका तीव्र और मर्मस्पर्शी शब्दोंमें निषेध किया। उन्होंने स्पष्ट कहा कि'जाति देहके आश्रयसे देखी जाती है और देह ही आत्माका संसार है, इसलिए जिन्हें जातिका श्राग्रह है वे संसारसे मुक्त नहीं होते।' इसी तथ्यको दुहराते हुए उन्होंने पुनः कहा कि-'जिन्हें जाति और लिङ्गके विकल्परूप से धर्मका आग्रह है वे आत्माके परमपद ( मोक्ष ) को नहीं प्राप्त होते / ' यद्यपि इन शब्दों द्वारा प्राचार्य पूज्यपाद उसी तथ्यको प्रकाशमें लाये हैं जिसका उनके पूर्ववर्ती प्राचार्योंने निर्देश किया था, परन्तु इस कथन द्वारा आचार्य पूज्यपाद अपने कालका पूरा प्रतिनिधित्व करते हुए जान पड़ते हैं, इसलिए इसे हम जातिवादके विरोधका तृतीय प्रस्थान कह सकते हैं।
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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