________________ जातिमीमांसा 163 त्रिवर्णी हैं और इनको छोड़कर अन्य और जितने मनुष्य हैं वे चाहे आर्य हों या म्लेच्छ; चाहे अविरती हों या श्रावक और मुनि वे सबके सब शूद्र हैं। धार्मिक दृष्टिसे यदि वर्णव्यवस्था स्वीकार की जाती है तो वह असि श्रादि कर्मके आधारसे नहीं मानी जा सकती। उसका विचार एकमात्र मोक्षमार्गकी दृष्टिसे ही हो सकता है। सम्भवतः इसी तथ्यको ध्यानमें रखकर उन्होंने वर्णका उक्त लक्षण किया है। जैसा कि हम आगे चलकर बतलानेवाले हैं सोमदेवसरिने भी इस तथ्यको स्वीकार किया है। इसलिए वे धर्मके लौकिक और पारलौकिक ये दो भेद करके ब्राह्मणादि जातियोंका सम्बन्ध लौकिक धर्मके साथ स्थापित करते हैं, पारलौकिक धर्म (मोक्षमार्ग) के साथ नहीं। किन्तु एक तो आचार्य गुणभद्र द्वारा किया गया यह लक्षण अागममें मान्य नहीं है, क्योंकि उसमें न तो जोवोंके परिणामरूपसे वर्णको स्वीकार किया गया है और न अलगसे ऐसे जाति नामकर्म और गोत्रकर्म ही बतलाये गये हैं जो मनुष्यकी उस पर्यायमें केवल शुक्लध्यानको उत्पन्न करनेमें हेतु हो / दूसरे वे इस व्याख्याका व्यवहारमें सर्वत्र निर्वाह भी नहीं कर सके हैं। उदाहरणार्थ उन्होंने पुष्पदन्त जिनका चरित लिखते समय उनके पिताको इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री और क्षत्रियोंमें अग्रणो कहा है। साथ ही उन्होंने विदेह क्षेत्रमें भी गर्भान्वय आदि क्रियात्रोंका सद्भाव स्वीकार कर लिया है। यह तो सुविदित है कि पुष्पदन्त जिनके पिता उस पर्यायसे मोक्ष नहीं गये हैं, इसलिए वे उक्त व्याख्याके अनुसार क्षत्रिय नहीं ठहरते / फिर भी यहाँ पर प्राचार्य गुणभद्र उन्हें क्षत्रिय रूपसे स्वीकार करते हैं। इससे मालूम पड़ता है कि चार वर्णोंकी उस व्याख्याको भी वे लौकिक दृष्टिसे मान्य करते हैं जो इनके गुरु जिनसेनने या अन्य आचार्योंने की है। ये दो उल्लेख है। श्राचार्य गुणभद्रके साहित्यसे ऐसे अन्य उल्लेख भी उपस्थित किये जा 'सकते हैं जिनसे. इस तथ्यकी पुष्टि होती है। इसलिए निष्कर्षरूपमें हमें यह मानना पड़ता है कि न तो आचार्य गुणभद्रका साहित्य ही अपने गुरु