________________ 164 . वर्ण, जाति और धर्म श्राचार्य जिनसेनके साहित्यके प्रभावसे सर्वथा मुक्त रह सका है और न सोमदेव सूरि या पण्डित प्रवर आशाधरजीका साहित्य ही। वस्तुस्थिति यह है कि उत्तरकालीन चरणानुयोग और प्रथमानुयोगका जितना भी जैन साहित्य उपलब्ध होता है उसमें से अधिकतर जैन साहित्य प्रायः इसी मतका समर्थन करता है जो प्राचार्य जिनसेनको इष्ट है। इतना ही नहीं, कहीं यदि आचार्य जिनसेनके कथनमें कोई महत्त्वकी बात फैलाकर नहीं कही गई है तो उसकी पूर्ति उत्तरकालीन साहित्यकारोंने की है। उदाहरणार्थ मनुस्मृतिमें सवर्ण विवाहको धर्मविवाह और असवर्ण विवाहको कामविवाह कहा है / प्राचार्य जिनसेन इस विषयमें बहुत स्पष्ट नहीं हैं जो एक कमो मानी जा सकती है। लाटीसंहिताके कर्ता पण्डित राजमलजीको यह कमो खटकी, अतः वे मनुस्मृतिके अनुसार पत्नीके दो भेद करके अपनी जातिकी पत्नीको ही धर्मकार्यों में अधिकारिणी मानते हैं, भोगपत्नीको नहीं। वे स्पष्ट कहते हैं कि अपनी जातिकी विवाहिता पत्नी ही धर्मपत्नी , हो सकती है / इतर जातिको विवाहिता ही क्यों न हो; उसे धर्मपत्नी बनानेका अधिकार नहीं है / उनके मतसे वह भोगपत्नी होगी। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरकालीन जैन साहित्यपर प्राचार्य जिनसेनके विचारोंकी न केवल गहरी छाप पड़ी है, अपि तु कईने जातिवादके समर्थनका एक प्रकारसे बीड़ा ही उठा लिया था। जातिवादके विरोधके चार प्रस्थान पूर्वोक्त विवेचनसे यह तो स्पष्ट ही है कि प्राचार्य जिनसेनके बाद जैसे-जैसे काल बीतता गया जैनधर्म भी जातिवादका अखाड़ा बनता गया। ब्राह्मणधर्मके समान इसमें भी अनेक युक्तियों और प्रयुक्तियों द्वारा जातिवादका समर्थन किया जाने लगा। गृहस्थोंके प्राचार व्यवहारमें तो जातिवादका प्रभाव दिखलाई देने ही लगा, मुनियोंका आचार व्यवहार भी उसके प्रभावसे अछूता न रह सका। मुनिजन प्राणीमात्रके साथ