SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 162 वर्ण, जाति और धर्म समान शूद्रोंके लिए भी मुनिधर्म और श्रावकधर्मको स्वीकार करनेका मार्ग खुल जाता है। पण्डित प्रवर आशाधरजी आचार्य जिनसेन और आचार्य गुणभद्रके कथनके इस अन्तरको समझते थे, इसलिए उन्होंने अपने सागारधर्मामृतमें सर्व प्रथम विद्या और शिल्पसे रहित आजीविकावालोंके कुलको दीक्षाके अयोग्य बतला कर भी अन्तमें यह कहनेका साहस किया है कि उपस्करशुद्धि, आचारशुद्धि और शरीरशुद्धिके होने पर शूद्र भी ब्राह्मण आदिके समान धर्मको धारण करनेके अधिकारी हैं / इसकी पुष्टिमें उन्होंने जो हेतु दिया है, इसमें सन्देह नहीं कि उस द्वारा जैनधर्मके मूल सिद्धान्तकी अभिव्यक्ति हो जाती है। वे कहते हैं कि लोकमें जो जातिसे हीन माना जाता है उसकी काललब्धि आ जानेपर उसे धर्मको स्वीकार करनेसे कौन रोक सकता है। उल्लेख इस प्रकार है शूद्रोऽप्युपस्कराचारवपुःशुद्धधास्तु तादृशः / जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्मास्ति धर्मभाक् // 22-2 // यहाँ यह स्मरणीय है कि पण्डितप्रवर आशाधरजीने उक्त श्लोककी टीका करते समय आचार्य जिनसेन द्वारा स्वीकृत वर्णका लक्षण उद्धृत न कर आचार्य गुणभद्र द्वारा स्वीकृत वर्णके लक्षणको उद्धृत कर अन्तमें उसे ही अपनी स्वीकृति दी है। इसमें सन्देह नहीं कि आचार्य गुणभद्रने वर्णके इस लक्षण द्वारा धार्मिक दृष्टिसे समाजकी दिशा मोड़नेके लिए और उसमेंसे जातिवादके विषको दूर करनेके लिए नया चरण रखा है। इस द्वारा वे उन समस्त व्याख्याओंको, जो इसके पूर्व प्राचार्य जिनसेनने की oN, अस्वीकार कर देते हैं / इसे फैलाकर देखनेपर सूचित होता है कि जो तद्भव मोक्षगामी और उपशमश्रेणिपर आरोहण करनेवाले मनुष्य हैं, लौकिक दृष्टि से चाहे वे नीच कुलमें उत्पन्न हुए हों और चाहे उच्चकुलमें, एकमात्र वे ही
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy