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________________ कुलमीमांसा 153 यह तो हम पहले ही कह आये हैं कि प्राचार्य वीरसेन और पण्डितप्रवर आशाधरजीने लोकमें प्रचलित कुल और गोत्रको मृषा बतलाया है। इसकी पुष्टिमें पण्डितप्रवर आशाधरजीने अनगारधर्मामृतमें एक श्लोक भी उद्धृत किया है। उसमें कहा गया है कि इस अनादि संसारमें कामदेव दुर्निवार है और कुल स्त्रीके अधीन है, इसलिए अलग-अलग जाति माननेमें कोई सार नहीं है / श्लोक इस प्रकार है अनादाविह संसारे दुर्वारे मकरध्वजे / - कुले च कामिनीमूले का जातिपरिकल्पना // इतने विवेचनसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि जहाँ आचार्य जिनसेनने जन्मसे वर्णव्यवस्था और कुलशुद्धि का कल्पित व्यूह खड़ा किया है वहाँ दूसरे विचारकोंने उसपर कठोर प्रहारकर उसे छिन्न-भिन्न भी कर दिया है। फिर भी मूल आगमका इस विषयमें क्या अभिप्राय है इसपर साङ्गोपाङ्ग विचार कर लेना भी आवश्यक है, क्योंकि हमारे लिए एकमात्र आदर्श आगम साहित्य ही है, इसके सिवा इस कालमें तथ्यको समझने के लिए अन्य कोई उपाय नहीं है। ____ यह तो आगमसे ही स्पष्ट है कि श्रावकधर्मका पालन केवल मनुष्य ही नहीं करते, तिर्यञ्च भी करते हैं। किन्तु उनमें उनके द्वारा बनाई हुई किसी प्रकारकी सामाजिक व्यवस्था न होनेसे कुलशुद्धिसम्पन्न तिर्यञ्च ही उसका पालन कर सकते हैं, अन्य तिर्यञ्च नहीं यह नहीं कहा जा सकता / आगममें स्पष्ट बतलाया है कि जो गर्भजन्मसे उत्पन्न हुआ आठ वर्षका कर्मभूमिज मनुष्य है वह श्रावकधर्म और मुनिधर्मका अधिकारी है / तथा गर्भजन्म की अपेक्षा जो तीन माहका कर्मभूमिज संज्ञी तिर्यञ्च है वह श्रावकधर्मका अधिकारी है / श्रावकधर्म या मुनिधर्मको स्वीकार करने के लिए वहाँ इससे अधिक अन्य किसी प्रकारके प्रतिबन्धका निर्देश नहीं किया है। यदि इससे अधिक अन्य किसी प्रकार के प्रतिबन्धकी कल्पना की भी जाती है तो वह उक्त प्रकारके सब तिर्यञ्चोंमें तो सम्भव है ही नहीं यह तो स्पष्ट ही है, उक्त
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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