________________ . 154 वर्ण, जाति और धर्म सब प्रकारके मनुष्योंमें भी वह सम्भव नहीं है यह भी स्पष्ट है, क्योंकि जिन म्लेच्ल मनुष्योंमें त्रैवर्णिकोंके समान सामाजिक व्यवस्था उपलब्ध नहीं होती वे मनुष्य भी श्रावकधर्म और मुनिधर्मके अधिकारी माने गये हैं। इतना ही नहीं, जिन चाण्डालादि अस्पृश्य शूद्रोंको उपनयन और विवाह आदि सामाजिक संस्कारोंके करनेका अधिकार नहीं दिया गया है वे भी व्रतोंको स्वीकार करनेके अधिकारी हैं ऐसी जिनाज्ञा है। तभी तो इस तथ्यको स्वीकार करने के लिए आचार्य रविषेण * बाध्य हुए हैं। वे पद्मपुराणमें कहते हैं. न जातिर्गर्हिता काचित् गुणाः कल्याणकारणम्। . व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः // 11-203 // . अर्थात् कोई जाति गर्हित नहीं होती। वास्तवमें गुण कल्याणके कारण होते हैं, क्योंकि जिनेन्द्रदेवने व्रतोंमें स्थित चाण्डालको भी ब्राह्मणरूपसे स्वीकार किया है। ___ उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि धर्ममें जाति व्यवस्थाको तो स्थान है ही नहीं, उसके अङ्ग रूप कुलशुद्धिको भी कोई स्थान नहीं है, क्योंकि धर्मका सम्बन्ध मुख्यतया गतिके आश्रयसे होनेवाले परिणामोंके साय है। कोई मनुष्य अकुलीन है, हीन जातिका है, कोढ़ी है, काना है, लूला है, हीन संस्थानवाला है या हीन संहननवाला है, इसलिए वह चारित्रधर्मको स्वीकार करनेका अधिकारी नहीं है, जो ऐसा मानते हैं, वास्तवमें वे आगमकी अवहेलना कर.आत्मधर्मके स्थानमें शरीरधर्मको स्थापना करना चाहते हैं। आगममें उपशम सम्यग्दर्शनादिकी उत्पत्तिके समय विशुद्धिलब्धि होती है इस प्रकारका निर्देश किया है इसमें सन्देह नहीं और यह समझमें भी आता है कि जिस समय आत्मामें किसी प्रकारके अलौकिक धर्मका प्रादुर्भाव होता है उस समय वह उस धर्मके योग्य विशुद्धिलब्धिके हुए बिना नहीं हो सकता / पर उसका वह अर्थ कदापि नहीं है जो आचार्य जिनसेनने महापुराणमें