________________ 152 ___ वर्ण, जाति और धर्म मार्गके साथ इनका रञ्चमात्र भी सम्बन्ध नहीं है, इसलिए कुलशुद्धि और जातिव्यवस्थाको धर्ममें कोई स्थान है और इनका धर्मके साथ निकट सम्बन्ध है यह बात समझमें नहीं आती। यह कथन केवल हमारे मनकी कल्पना नहीं है, अन्य आचार्योंने भी जातिव्यवस्था और कुलशुद्धि पर कठोर प्रहार किया है। प्रकृतमें इस विषयको स्पष्ट करने के लिए दो उदाहरण दे देना पर्याप्त है। इनमेंसे एक उदाहरण अमितिगतिश्रावकाचारका है और दूसरा उदाहरण धर्मपरीक्षाका है। अपने श्रावकाचारमें अमितिगति कहते हैं-'वास्तवमें यह उच्च और नीचपनेका विकल्प ही सुख और दुखका करनेवाला है। कोई उच्च और नीच जाति है और वह सुख और दुख देती है यह कदाचित् भी नहीं है। जैसे बालुको पेलनेवाला लोकनिन्द्य पुरुष कष्ट भोग कर भी कुछ भी फलका भागी नहीं होता वैसे ही अपने उच्चपनेका अभिमान करनेवाला कुबुद्धि पुरुष धर्मका नाश करता है और सुखको नहीं प्राप्त होता।' धर्मपरीक्षामें इसी बातको इन शब्दोंमें व्यक्त किया है-'ब्राह्मण और ब्राह्मणी सदा शीलसे ही रहें, अनादि कालसे उनके कुटुम्बमें कभी भी स्खलन न हो यह सम्भव नहीं है। वास्तवमें संयम, नियम, शील, तप, दान, दम और दया ये गुण तात्त्विकरूपसे जिस किसी जातिमें विद्यमान हों उसी जातिको सजन पुरुष पूजनीय मानते हैं, क्योंकि योजनगन्धा (धीवरी) आदि की कुक्षिसे उत्पन्न हुए व्यास आदि तपस्वियोंकी महापूजा होती हुई देखी गई है, इसलिए सबको तपञ्चरणमें अपना उपयोग लगाना चाहिए / नीच जातिमें उत्पन्न होकर भी शीलवान् पुरुष स्वर्ग गये हैं / तथा शील और संयमका नाश करनेवाले कुलीन पुरुष नरक गये हैं। गुणोंसे अच्छी जाति प्राप्त होती है और गुणोंका नाश होनेसे वह नष्ट हो जाती है, इसलिए बुद्धिमान् पुरुषोंको मात्र गुणोंका आदर करना चाहिए / सजन पुरुषोंको अपने को नीच बनानेवाला जातिमद कभी नहीं करना चाहिए और जिससे अपने में उच्चपना प्रगट हो ऐसे शोलका आदर करना चाहिए।' .