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________________ कुलमीमांसा 15. कृषि और वाणिज्य इन चार कर्मोंका आश्रय लेकर अपनी आजीविका करता है, जो निरामिषभोजी है, जिसे अपनी कुल स्त्रीके साथ ही सेवन करनेका व्रत है, जो संकल्ली हिंसाका त्यागी है तथा जो अभक्ष्य और अपेयका सेवन नहीं करता। इस प्रकार जिसकी व्रतपूत शुद्धतर वृत्ति है वह समस्त व्रतचर्या विधिका अधिकारी है / .. यहाँ पर जितने विशेषण दिये गये हैं उनमें दो मुख्य है-एक तो उसे द्विज होना चाहिए और दूसरे उसे कुलस्त्रीसेवन व्रती होना चाहिए। जिसमें ये दो विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं वह शुद्ध कुल है / यदि उसमें इन दोके सिवा अन्य विशेषताएँ नहीं भी हैं तो भी वह दीक्षाके योग्य कुल मान लिया जाता है / नौवीं शताब्दिके बाद उत्तर कालीन कुछ साहित्यमें तीन वर्ण दीक्षाके योग्य हैं यह घोषणा इसी आधार पर की गई है और इसी आधार पर पिण्डशुद्धिका विधान और जातिलोपका निषेध भी किया गया है। जिस प्रकार समाजकी सुव्यवस्थाके लिए राज्यव्यवस्था और आजीविकाके नियम आवश्यक हैं। उसी प्रकार कौटुम्बिक व्यवस्थाको बनाये रखनेके लिए और समाजको अनाचारसे बचाये रखने के लिए विवाहविधि या दूसरे प्रकारसे स्त्री-पुरुषोंके ऊपर नियन्त्रण बनाये रखना भी आवश्यक है / मूलतः ये तीनों प्रकारकी व्यवस्थाएँ सामाजिक परम्पराकी अङ्गभूत हैं, इसलिए एक ओर जहाँ समाजशास्त्र के निर्माताओंने अपने-अपने कालके अनुरूप इन पर पर्याप्त विचार किया है वहाँ धर्मशास्त्रकारोंने इन्हें अछूता छोड़ दिया है। मुनिधर्म तो समस्त सामाजिक परम्पराओंका त्याग करने के बाद ही स्वीकार किया जाता है, इसलिए मुनिधर्मके प्रतिपादक आचारविषयक ग्रन्थोंमें इनका उल्लेख न होना स्वाभाविक ही है। किन्तु जो गृहस्थधर्मके प्रतिपादक आचार ग्रन्थ हैं उनमें भी नौवीं शताब्दिके पूर्व इनका उल्लेख नहीं हुआ है / इसका कारण यह है कि एक तो देश, काल और परिस्थितिके अनुसार ये व्यवस्थाएँ बदलती रहती हैं। दूसरे मोक्ष
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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