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________________ 150 - वर्ण, जाति और धर्म प्रायके बिना की गई पूजा, दान, स्वाध्याय, संयम और तपरूप कोई भी क्रिया जैनधर्म संज्ञाको नहीं प्राप्त हो सकती। कुलशुद्धि और जैनधर्म इस प्रकार जैनधर्ममें कुल या वंशको स्थान नहीं है इस स्थितिके रहते हुए भी उत्तरकालीन साहित्यमें कुल शुद्धि पर विशेष बल देकर उसे ही धर्ममें साधक माना गया है। प्रकृतमें विचारगीय यह है कि यह कुलशुद्धि . क्या वस्तु है और उसका धर्मके साथ क्या सम्बन्ध है ? महापुराणमें कुल का लक्षण इन शब्दोंमें किया है- . .. पितुरन्वयशुद्धिर्या तस्कुलं परिभाषते // 85, पर्व 36 // ... पिताकी वंशशुद्धिको कुल कहते हैं / तात्पर्य यह है कि अपने कुलाचारका योग्य रीतिसे पालन करते हुए जो पुत्र-पौत्र सन्ततिमें एक रूपता बनी रहती है उसे कुलशुद्धि कहते हैं / इसी अभिप्रायको ध्यानमें रख कर महापुराणमें कुलावधि क्रियाका निर्देश इन शब्दोंमें किया गया है कुलावधिः कुलाचाररक्षणं स्यात् द्विजन्मनः।। ____ तस्मिन्नसत्यसौ नष्टक्रियोऽन्यकुलतां भजेत् // 181-40 // अपने कुलके आचारकी रक्षा करना द्विजकी कुलावधि क्रिया है। उसकी रक्षा न होने पर उसकी समस्त क्रियाएं नष्ट हो जाती हैं और वह अन्य कुलको प्राप्त हो जाता है। ___ महापुराणमें यह तो कहा है कि जिसका कुल और गोत्र शुद्ध है वही द्विज दीक्षा धारण कर सकता है। परन्तु उसमें उन्हें कुलकी शुद्धि और गोत्रकी शुद्धिसे क्या अभिप्रेत रहा है इसका अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। इतना अवश्य है कि सम्पूर्ण व्रतचर्या विधिका निर्देश करते हुए जो कुछ कहा गया है उससे इस बातका पता अवश्य लगता है कि उसमें कुलशुद्धिसे क्या इष्ट है। वहाँ बतलाया है कि जिसका उपनयन संस्कार हो चुका है, जिसका कुल दूषित नहीं है, जो असि, मषि,
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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