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________________ कुलमीमांसा 146 की महिमाको छोड़कर इसे और क्या कहा जा सकता है। अञ्जन चोरने जीवनभर दुष्कर्म किये। किन्तु अन्तमें काललब्धिके अनुसार निमित्त मिलते ही उसका उद्धार हो गया। इसके विपरीत एक क्षुल्लकने जीवनभर धर्माचरण किया। किन्तु समाधिके समय उसका चित्त किसी फल विशेषमें आसक्त हो जानेके कारण वह मरकर उसी फलमें कीड़ा हुआ। इस प्रकार पूर्वके दो उदाहरणोंके समान इन दो उदाहरणोंमें भी हमें परिणामोंकी ही महिमा दिखलाई देती है। तभी तो कल्याणमन्दिर स्तोत्रमें सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि / ... नूनं न चेतसि मया विश्तोऽसि भक्त्या // जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुःखपात्रम् / यस्मात् क्रियाः प्रतिफलन्तिः न भावशून्याः // 38 // मैंने अनेक बार आपका नाम और गुण सुने, अनेक बार आपको पूजा की और अनेक बार आपको देखा भी। किन्तु मैंने एक बार भी आपको भक्तिपूर्वक अपने चित्तमें धारण नहीं किया, इसलिए हे जनबान्धव ! मैं आजतक दुःखका पात्र बना रहा। यह ठीक ही है क्योंकि भावशून्य की गई. क्रियाओंसे मोक्षरूप इष्ट फलको सिद्धि होना दुर्लभ है। ____ इस प्रकार हम देखते हैं कि मोक्षमार्गके अभिप्रायसे की गई क्रियाएँ भी जब विफल हो जाती हैं तब जो क्रियाएँ कुलके अभिनिवेशवश की जाती हैं वे सफल कैसे हो सकती हैं / यही कारण है कि जैनधर्ममें कुल या वंश को महत्त्व न देकर इनके अहंकारके त्यागका ही उपदेश दिया गया है। तात्पर्य यह है कि जैनधर्म न तो कुलधर्म है और न जातिधर्म ही है / वह तो प्राणीमात्रका हित साधन करनेवाला एकमात्र आत्मधर्म है / लौकिकधर्म और जैनधर्ममें जो अन्तर है, कुलधर्म और जैनधर्ममें वही अन्तर है। कुलचर्यारूपसे जैनधर्मको स्वीकार करने पर जैनधर्मके दर्शन होना तो दुर्लभ है, उसकी छायाके भी दर्शन नहीं होते, क्योंकि आत्मशुद्धिरूप अभि
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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