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________________ 148 वर्ण, जाति और धर्म . . अपने इस भावको पुष्ट करनेके लिए वे आगे पुनः कहते हैं भावविपुद्धिणिमित्तं बाहिरगंथस्स कीरए चाओ। बाहिरचाओ विहलो अभंतरगंथजुत्तस्स // 3 // यह जीव भावोंको विशुद्ध करने के लिए बाह्य परिग्रहका त्याग करता है। किन्तु बाह्य परिग्रहका त्याग करने पर भी जो आभ्यन्तर परिग्रहसे मुक्त नहीं होता उसका बाह्य परिग्रहका त्याग करना निष्फल है। वे इसी भावको स्पष्ट करते हुए पुनः कहते हैं भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ। जम्मंतराइं बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो // 4 // ... यह जीव दोनों हाथ लटकाकर और वस्त्रका त्यागकर कोड़ाकोड़ो जन्म तक निरन्तर तपश्चर्या भले ही करता रहे / परन्तु जो भाव रहित है उसे सिद्धि मिलना दुर्लभ है // 4 // __ पहले हम महापुराणमें वर्णित जिन क्रियाओंका उल्लेख कर आये हैं कदाचित् उन्हें सामाजिक दृष्टिसे संस्कार कहने में आपत्ति न भी मानी जाय तो भी जैनधर्मके अनुसार उन्हें संस्कार संज्ञा देना उचित नहीं है, क्योंकि उनके कथनमें प्राणीमात्रके कल्याणकी भावना न होकर वे सामाजिक दृष्टिकोणको सामने रखकर ही कही गई हैं। जैनधर्मके अनुसार जिन क्रियाओंके निरन्तर अभ्यासको संस्कार कहते हैं वे भी आत्मकार्यकी सिद्धि होने तक सब जीवोंमें निरन्तर बने ही रहते हैं ऐसा एकान्त नियम नहीं है। किस जीवके वे संस्कार कितने काल तक बने रहें यह मुख्यरूपसे परिणामोंपर अवलम्बित है। एक जीव लगातार उत्तमोत्तम गतियों को धारण करने के बाद अन्तमें उपशमश्रेणिपर आरोहण करता है और वहाँ से पतित होने के बाद क्रमसे मिथ्यात्वमें जाकर तथा तिर्यञ्चायुका बन्धकर अन्तर्मुहूतके भीतर निगोदका पात्र होता है और दूसरा जीव इसके विपरीत . नित्यनिगोदसे निकलकर तथा त्रस-स्थावर सम्बन्धी कुछ पर्याय धारणकर और अन्तमें मनुष्य हो उसी भवसे मोक्षका पात्र होता है। एकमात्र भावों
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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