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________________ कुलमीमांसा 147 ___यह तो गर्भान्वय क्रियाओंकी स्थिति है। दीक्षान्वय क्रियायें जो अजैन .मनुष्य श्रावक या मुनिधर्मको दीक्षा लेता है उसके लिए कही गई हैं / वे अड़तालीस हैं। इन क्रियाओंको करनेका अधिकारी कौन हो सकता है इसका प्रारम्भमें कुछ भी समाधान नहीं किया गया है। मात्र वहाँ इतना ही कहा गया है कि जो भव्य पुरुष मिथ्यात्वसे दूषित मार्गको छोड़कर सन्मार्गके सन्मुख होता है उसके लिए ये क्रियाएँ हैं / किन्तु आगे चलकर इन क्रियाओंका सम्बन्ध भी उपनीति क्रिया द्वारा द्विजोंके साथ स्थापित करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जैनधर्ममें दीक्षा लेनेका अधिकारी मात्र द्विज है, शूद्र नहीं। यहाँ भी इन क्रियाओंको शूद्र क्यों नहीं कर सकता या दूसरे शब्दोंमें जैनधर्ममें शूद्र क्यों दीक्षित नहीं हो सकता इसका कुछ भी समाधान नहीं किया गया है। प्राचार्य जिनसेनने महापुराणमें इन क्रियाओंका उपदेश क्यों दिया यह इससे स्पष्ट हो जाता है। इस पर विचार करनेसे विदित होता है कि एक ओर तो इन क्रियाओं द्वारा जैनधर्म का ब्राह्मणीकरण किया गया है और दूसरी ओर शूद्रोंके लिए अब तक जो जैनधर्मका द्वार खुला हुआ था वह सदाके लिए बन्द कर दिया गया है / वस्तुतः जैनधर्ममें ऐसे संस्कारोंको और इनके आधारपर कल्पित किये गए कुल, वंश और जातिप्रथाको रञ्चमात्र भी स्थान नहीं है। इन क्रियाओंसे संस्कारित होकर मनुष्य मोक्षमार्गका पात्र तो नहीं बनता। किन्तु उसमें कुलाभिमान और जात्यभिमान अवश्य जागृत हो उठता है जो जैनधर्मके मूलपर ही कुठाराघात करता है। आचार्य कुन्दकुन्द क्रियाओंकी निःसारताको दिखलाते हुए भावप्राभृतमें कहते हैं भावो य पढमलिंगं ण दवलिंगं च जाण परमत्थं / भावों कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति // 2 // -- आत्मोन्नतिमें प्रधान कारण भावलिंग है। वही परमार्थ सत् है / केवल द्रव्यलिंगसे इष्टसिद्धि नहीं होती, क्योंकि जीवमें गुणोत्पादक और दोषोत्पादक एकमात्र जीवोंके परिणाम हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवका उपदेश है। .
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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