________________ 146 . वर्ण, जाति और धर्म प्रकृति रही है उसे भुलाकर वर्तमानमें हम इन कल्पित कुलों, वंशों, जातियों और उपजातियोंको लिये बैठे हैं और इन्हींकी पुष्टिमें जैनधर्मकी चरितार्थता मान रहे हैं। जैन परम्परामें कुल या वंशको महत्त्व न मिलनेका तीसरा कारण है संस्कारोंकी निःसारता / प्रायः देखा जाता है कि किसी लंकड़ीको विधिपूर्वक काटने छीलने पर वह उपयोगी उपकरणका आकार ग्रहण कर लेती है। इसी प्रकार यह भी माना जाता है कि किसी व्यक्ति पर की गई क्रियाओंका ऐसा प्रभाव पड़ता है जिससे वह धीरे-धीरे संस्कार सम्पन्न हो जाता है। वैदिक परम्परामें जो सोलह संस्कार बतलाये गये हैं वे इसी आधार पर कल्पित किये गये हैं। पौराणिक कालमें जैन परम्परा भी इन संस्कारोंको स्वीकार कर लेती है। किन्तु ये संस्कार क्या हैं और इनसे किस प्रकार के व्यक्तित्वका निर्माण होता है, सर्व प्रथम यही यहाँ देखना है / मापुराणमें गर्भान्वय क्रियाएँ तिरेपन बतलाई है। प्रारम्भकी कुछ क्रियाएँ ये हैंगर्भाधान, प्रीति, सुप्रीति, धृति, मोद, प्रियोगक, नामकर्म, बहिर्यान, निषद्या, अन्नप्राशन, व्युष्टि, केशवाप, लिपिसंख्यानसंग्रह, उपनीति, व्रतचर्या, व्रतावतरण, विवाह, वर्णलाभ और कुलचर्या / इन क्रियाओंको कौन कर सकता है इस प्रश्नका समाधान करते हुए वहाँ यह तो नहीं बतलाया है कि इनको शूद्र नहीं कर सकता। किन्तु उपनीति आदि क्रियाओंको शुद्ध नहीं कर सकता इस बातका वहाँ अवश्य ही निर्देश किया है। इसका अभिप्राय यह है कि न तो शूद्रको यज्ञोपवीत पहिननेका अधिकार है, न वह विधिपूर्वक विवाह कर सकता है, न स्वतन्त्रता पूर्वक अपनी आजीविका कर सकता है और न ही वह पूजा आदि धार्मिक कार्य कर सकता है। संक्षेपमें यदि कहा जाय तो इन सब क्रियाओंका सार इतना ही है कि.न तो वह विधिपूर्वक श्रावकधर्म स्वीकार कर सकता है और न मुनिधर्म स्वीकार करके मोक्षका अधिकारी हो सकता है। इन क्रियाओंको शुद्ध क्यों नहीं कर सकता इसका वहाँ कोई समाधान नहीं किया गया है। . .