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________________ कुलमीमांसा 145 बाध्य होती है और इस प्रकार दूसरे पुरुषके निमित्तसे उत्पन्न हुई सन्तान विवक्षित कुलको खण्डित कर देती है। लोकमें उस कुलका नाम तो तब भी चलता रहता है, परन्तु वास्तवमें कुल बदल जाता है। इस सत्यको सबने एक स्वरसे स्वीकार किया है / जैन परम्परामें कुल या वंशको महत्त्व न मिलनेका एक कारण तो यह है। दूसरा कारण है लौकिक आचार और विचारका बदलते रहना / यह कोई आवश्यक नहीं है कि अपने प्रारम्भ काल में जिस कुल या वंशका जो आचार-विचार रहा है, उत्तर कालमें अन्त तक उसका वही आचारविचार बना रहता है, उसमें किसी प्रकारका परिवर्तन नहीं होता / जैसा कि पुराणोंसे स्पष्ट है कि प्रारम्भमें सूर्यवंश और चन्द्रवंश आदि प्रसिद्ध वंशोंके जितने भी क्षत्रिय हुए हैं वे सब जैनधर्मके अनुयायी थे। किन्तु उनमेंसे वर्तमान कालमें कितने क्षत्रिय जैनधर्मके अनुयायो दिखलाई देते हैं। भगवान् महावीरका जन्म ज्ञातृक वंशमें हुआ था इसे इतिहासकार भी मानते हैं। इस समय भी विहार प्रदेशमें उनकी जातिके लोग पाये नाते हैं जिन्हें जथरिया कहते हैं। किन्तु उनके वर्तमान कालीन आचारविचारको देखकर कोई यह अनुमान नहीं कर सकता कि ये भगवान् महावीर स्वामीके वंशज हैं। जब कि एक ही व्यक्ति अपने जीवनकालमें आचार-विचारको अनेक रूप देता हुआ देखा जाता है, ऐसी अवस्थामें कल्पित कुल या वंशके आधारसे किसी एक व्यक्ति या कुलका आचारविचार सदा एक रूपमें चलता रहेगा यह कैसे माना जा सकता है / - आचार्य जिनसेनने प्रजामेंसे व्रती श्रावकोंको छाँटकर भरत चक्रवर्तीके द्वारा ब्राह्मण वर्णकी स्थापना कराई। उन्हें दान-सन्मानका अधिकारी बनाया। सामाजिक अपराध बन जाने पर भी वे दण्डके अधिकारी नहीं यह घोषणा कराई / इतना सब होने पर भी वर्तमानमें ऐसे कितने ब्राह्मण हैं जो जैनधर्मका पालन करते हैं ? क्या कभी आँख खोलकर इस बात पर विचार किया है ? सच तो यह है कि जैनधर्मकी प्रारम्भसे जो आध्यात्मिक
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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