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________________ 144 वर्ण, जाति और धर्म जैन परम्परामें कुल या वंशको महत्त्व न मिलनेका कारण इस प्रकार कुल या वंश शब्दका अर्थ क्या है और साहित्यमें या लोकमें उनका व्यवहार किस आधार पर प्रचलित हुआ इसका विचार किया। अब देखना यह है कि प्रारम्भमें जिस आधार पर कुल या वंशका प्रचलन होता है क्या अन्ततक उनका उसी रूपमें निर्वाह होता है या मध्य में किसी कारणवश उनके सदोष हो जाने पर भी नाम वही चलता रहता है ? इस प्रश्नको स्पष्ट रूपसे समझनेके लिए हम पुत्र-पौत्र सन्ततिके आधार पर कल्पित किये गये किसी एक वंशको लें। सामान्य नियम यह है कि जिस व्यक्तिके नाम पर कुल या वंश प्रचलित होता है उसकी सन्तान परम्परा . अन्त तक (जब तक उस व्यक्तिके नाम पर कुल कायम है तब तक) चलनी चाहिए / किन्तु ऐसा कहाँ होता है ? या तो कुछ पीढ़ीके बीतनेके बाद उस कुलके स्त्री या पुरुषमें कोई भीतरी दोष होनेके कारण सन्तान ही उत्पन्न नहीं होती, इसलिए दूसरे कुलके दत्तक पुत्रको लेकर उस कुलका नाम रोशन करना पड़ता है / उसी कुलकी परम्परा चलती रहे इसके लिए यह नियम तो बनाया गया कि दत्तक अपने कुलका होना चाहिए। परन्तु व्यवहार में ऐसा नहीं होता। कभी कुलका बालक ही दत्तक लिया जाता है और कभी अन्य कुलका बालक भी दत्तक ले लिया जाता है। यदि उसी कुलका दत्तक मिल जाता है तब तो रक्तके आधार पर कल्पित किये गए कुलकी परम्परा बनी रहती है, यह मान लिया जाता है / परन्तु जब अन्य कुलका दत्तक लेना पड़ता है तब केवल दत्तक लेने मात्रसे वह कुल आगे भी चलता रहता है यह मानना उचित नहीं है / ऐसी स्थिति उत्पन्न होने ... पर कुलका खण्डित हो जाना अवश्यंभावी है / केवल कुलका नाम चलते रहनेसे क्या लाभ ? बीचमें ही कुलके खण्डित हो जानेका यह एक कारण है / दूसरा कारण है पुरुषके कामवश स्त्रीका दूषित मार्ग पर चले जाना / होता यह है कि स्त्रीको अपने पतिसे सन्तोष न होनेके कारण या बलात्कार आदि अन्य किसी कारणवश वह दूसरे पुरुषके साथ समागम करनेके लिए
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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