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________________ कुलमीमांसा 143 उसकी कुलाचारमें परिगणना कर ली है। साथ ही यह भी अंकुश लगा दिया है कि जो इस आचारका ध्वंश करता है वह कुलबाह्य हो जाता है / महापुराणका उत्तरकालवर्ती जितना साहित्य है उसकी कुलके सम्बन्धमें प्रतिपादनशैली लगभग महापुराणके समान ही है। इतना अवश्य है कि उत्तरकालीन साहित्यमें जैनकुल शब्द भी आया है। यहाँ पर हम यह निर्देश कर देना आवश्यक समझते हैं कि कुलके लिए पद्मपुराण और पाण्डवपुराणमें गोत्र शब्द भी आया है। सम्भवतः कुलके लिए गोत्रशब्दका व्यवहार बहुत पुराना है / वीरसेन आचार्यने धवला टीकामें गोत्र, कुल, वंश और सन्तान ये एकार्थक हैं इस प्रकारका निर्देश सम्भवतः इसी कारणसे किया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह कुल या वंश शब्द केवल पुत्र-पौत्रप्रपौत्रकी परम्पराके अर्थमें न आकर और भी अनेक अर्थोंमें आया है। उदाहरणार्थ जैनकुल शब्द ही लीजिए / इससे नये पुराने जितने भी जैन हैं उन सबके समुदाय या परम्पराका बोध होता है / इसीप्रकार अरिहन्तकुल, चक्रवर्तीवंश आदिके विषयमें भी जान लेना चाहिए / विशेष स्पष्टीकरण हम पूर्वमें कर ही आये हैं / इन सबको कुल या वंश कहनेका आधार क्या है यदि इस प्रश्न पर विचार करते हैं तो यही प्रतीत होता है कि इन सबको कुल या वंश कहनेका कारण एकमात्र किसी परम्पराको सूचित करना मात्र है। आनुपूर्वी शब्दका जो अर्थ होता है वही अर्थ यहाँ पर कुल या वंश शब्दसे लिया गया है / परम्पराको सूचित करनेके लिए आधार कुछ भी मान लिया जाय, चाहे पुत्र-पौत्र सन्ततिको आधार मान लिया जाय, चाहे अन्य किसीको, जिससे अन्वय अर्थात् परम्पराकी सूचना मिलती है उसकी कुल या वंश संज्ञा है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यही कारण है कि साहित्यमें या लोकमें इन शब्दोंका उपयोग केवल पुत्र-पौत्र सन्ततिके अर्थमें न होकर अन्य अनेक प्रकारकी परम्पराओंको सूचित करने के अर्थमें भी हुआ है। ..
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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