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________________ 142 वर्ण, जाति और धर्म मात्र सम्यग्दृष्टि के कुलका महत्त्व दिखलानेके लिए यह शब्द आया है। कुल शब्द तत्त्वार्थसूत्रमें भी आया है। उसकी व्याख्या करते हुए आचार्य पूज्यपाद उसका अर्थ दीक्षा देनेवाले आचार्योंकी शिष्यपरम्परा सूचित करते हैं। तत्वार्थसूत्रके अन्य टीकाकार भी सर्वार्थसिद्धिका ही अनुसरण करते हैं / मूलाचारमें यह शब्द इसी अर्थमें आया है यह उसकी टीकासे विदित होता है / इसके बाद धवला टीकाका स्थान है / इसके प्रथम भागने कहींकी एक गाथा उद्धृत की गई है जिसमें आचार्यको कुलशुद्ध कहा है। स्पष्ट है कि यह उल्लेख प्रवचनसारके उल्लेखका ही अनुवर्तन करता है। इसी टीकामें आगे बारह वंशोंका भी उल्लेख हुआ है / यथा-अरिहन्तवंश, चक्रवर्तीवंश, विद्याधस्वंश, वासुदेववंश और इक्ष्वाकुवंश आदि / इनमेंसे अरिहन्तवंश आदि तो ऐसे हैं जो मात्र अरिहन्तों आदिकी परम्पराको सूचित करते हैं और इक्ष्वाकुवंश आदि ऐसे हैं जिनसे पुत्र-पौत्र आदिकी परम्परा सूचित होती है। इसी टीकामें मुनियोंके कुलोंको सूचित करते हुए वे पाँच प्रकारके बतलाये गये हैं / यथा--पञ्चस्तूप कुल, गुफावासी कुल, शाल्मलिकुल, अशोकवाटककुल और खण्डकेशरकुल / इनसे इतना ही बोध होता है कि यह मुनिपरंम्परा पूर्व में कहाँ रहती थी। जो पाँच स्तूपोंके आस पास निवास करती थी उस परम्पराके सब मुनि पञ्चस्तूपकुलवाले कहलाये / इसी प्रकार अन्य कुलोंके विषयमें भी जान लेना चाहिए / इसके बाद पद्मचरितका स्थान है। इसमें पुत्र-पौत्र परम्पर।की दृष्टि से इक्ष्वाकुवंश और सोमवंश आदि कुलोंका नामनिर्देश तो किया ही है। साथ ही श्रावककुल और ऋषिवंश इन कुलोंका भी नामनिर्देश किया है। स्पष्ट है कि यहाँ पर श्रावकधर्मका पालन करनेवाले मनुष्योंके समुदायको श्रावककुल और ऋषियोंके समुदायको ऋषिवंश कहा है / हरिवंश पुराणकी स्थिति पद्मचरितके ही समान हैं / आईतकुलशब्द महापुराणमें भी आया है / इतना अवश्य है कि इसमें कुलशब्दकी व्याख्या करते हुए पिताकी अन्वयशुद्धिको कुल कहा गया है और श्रावकका जितना भी आचार है
SR No.004410
Book TitleVarn Jati aur Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorFulchandra Jain Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1989
Total Pages460
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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